सनातन पर्वों पर ही क्यों उपदेश देने जारी होते हैं विज्ञापन और विमर्श
Why Are Hindu Festivals The Constant Target Of Socially Conscious Ads Parichay Advertising Jashn E Riwaz
Opinion: कभी होली, कभी दिवाली.. दिल क्यों दुखाते हैं हिंदू त्योहारों के विज्ञापन
हिंदू त्योहारों को लेकर हाल के दिनों में कई ऐसे विज्ञापन आए हैं जो उपदेश जैसे हैं। हालांकि, अन्य धर्मों के रीति रिवाज को लेकर कभी ऐसे विज्ञापन देखने को नहीं मिले हैं।
हाइलाइट्स
हिंदू त्योहारों पर कई उपदेश देने वाले विज्ञापन बनाए जाते हैं
लेकिन किसी अन्य धर्मों को लेकर ऐसे ऐड नहीं देखने को मिलते हैं
आखिर उपदेश देने वाले विज्ञापन किसी एक ही सीमा में क्यों?अश्विन सांघी
कुछ समय पहले एक शादी का विज्ञापन देने वाली वेबसाइट ने होली के धुलते रंग के साथ एक महिला के चेहरे पर चोट के निशान को दिखाया था। जहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा (Gender Violence) एक गंभीर मसला है, उसे होली से जोड़ना उचित था? इसके बाद एक चाय बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन को देखिए। इसमें दिखाया जा रहा है कि एक हिंदू लड़का कुंभ मेला के दौरान जान बूझकर अपने बुजुर्ग पिता को छोड़ देता है। ये सच है कि बुजुर्ग लोगों के खिलाफ अनादर की भावना एक बड़ी समस्या है, लेकिन क्या यह चुनौती केवल हिंदू समुदाय में है?
विज्ञापन में दोहरा रवैया
ये तो अनेक में से कुछ उदाहरण भर हैं जिसमें हिंदू त्योहारों, सिंबल और परंपरा पर उपदेश दिया जा रहा है। एक पारंपरिक कपड़े बनाने वाली कंपनी के विज्ञापन को ही देखिए, जिसमें हिंदू शादी के दौरान कन्यादान की परंपरा को पीछे की ओर लौटने वाली परंपरा की तरह दिखाया जाता है। एक दवा बनाने वाली कंपनी ने दिवाली पर पटाखे न छोड़ने की अपील करने वाला विज्ञापन दिखाया। जानवरों के अधिकारों की बात करने वाले रक्षा बंधन और जन्माष्टमी के दौरान लेदर और घी के इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी थी।
लेकिन कई लोगों के मनोमस्तिष्क में ये सवाल है कि आखिर कंपनियां या संगठन गैर हिंदू त्योहारों के दौरान ये ज्ञान क्यों नहीं देते हैं? उदाहरण के लिए जानवरों के अधिकारों की बात करने वाले लोगों को बकरीद के दौरान बकरों को मारने पर रोक लगाने की बात नहीं करनी चाहिए? कन्यादान पर उपदेश देने वालों को तीन तलाक और निकाल हलाला नहीं दिखता है? क्या कुछ समूह में महिलाओं के खतना पर कोई बात नहीं करनी चाहिए? संगठित तौर पर धर्मपरिवर्तन पर क्या राय है? ननों के उत्पीड़न क्या राय है? लेकिन यहां दोहरा रवैया साफ देखने को मिल रहा है।
सलेक्टिव एक्जिविज्म
यहां कई लोग ऐसे हैं जो कहते हैं कि पटाखे छोड़ने से जानवरों को दिक्कत होती है और वायु प्रदूषण बढ़ता है। शिवरात्रि के दौरान शिवलिंग पर दूध चढ़ाना उसकी बर्बादी है। मकर संक्रांति के दौरान पतंग के धागों से चिड़ियों के मरने की दलील। ऐसा नहीं है कि ये दलील गलत है लेकिन जो सेलिब्रिटी इसपर सवाल उठाते हैं वो खुद प्राइवेट जेट में घूमते हैं। अपने वीकेंड होम में हॉट टब और पुल बनाते हैं। या फिर ऐसी पार्टी करते हैं जहां भोजन बर्बाद भी होता है। ऐसे में उनकी सलाह अटपटी लगती है।
भारत और दुनिया में कई तरह की दिक्कतें हैं। अरबों जानवरों को निर्यात के लिए मारा जाता है। इससे 84 गुना ज्यादा मिथेन गैस निकलती है जो खतरनाक होती है। लेकिन क्या आपने देखा है कि इन कंपनियों ने मीट फ्री सेलिब्रेशन की वकालत की हो? प्राकृतिक रूप से क्रिसमस ट्री को तैयार करने में 16 किलोग्राम ग्रीनहाउस गैस निकलती है। वहीं अगर कृत्रिम क्रिसमस ट्री को नष्ट करने में 40 किलोग्राम उत्सर्जन होता है। लेकिन हम इसके कारण पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव को लेकर कोई गितिविधि नहीं देखते हैं। हजारो किलोग्राम पटाखे सिडनी, दुबई, न्यूयॉर्क, लंदन और कई अन्य शहरों में नए साल के जश्न के दौरान छोड़े जाते हैं। लेकिन इसको लेकर कोई सवाल नहीं उठता है।
जरा सोचिए
आखिर चुनिंदा एक्टिविज्म कहां तक जायज है? हम निश्चित तौर पर ऐसा समाज चाहते हैं जहां समलैंगिंक समुदाय को भी अधिकार मिले। लेकिन क्या किसी को इन अधिकारों को करवा चौथ की तस्वीर दिखाकर प्रमोट करना सही है? क्या ये लोग निकाह के मामले में भी इतने ही निडर होंगे? हम तो चाहेंगे कि पूरी दुनिया में त्योहार मनाए जाएं। लेकिन क्या किसी कपड़े बनाने वाली कंपनी को दिवाली पर ‘जश्न-ए-रिवाज’ जैसे शब्दों का प्रयोग करना चाहिए?
नुकसान आपका भी है
जब आप आपसी सदभाव की बाद करते हैं तो क्या हिंदू कट्टरता पर विज्ञापन की सीरीज दिखाना जरूरी है? क्या इन कंपनियों को ये समझ नहीं आती है कि भारत ऐतिहासिक तौर पर कैसा देश है। लेकिन सलेक्टिव एक्टिविज्म के जरिए दूसरों को ज्ञान देने की जगह आपको अपनी तरफ भी देखना होगा। आखिर ये बात अपने सामान बेचने वाली कंपनियां क्यों नहीं समझती हैं? ये जरूर है कि किसी विज्ञापन पर विवाद से वह सबकी नजरों में आ जाता है लेकिन जिसके जरिए आप राजस्व कमाते हैं उसका क्या होगा? रिटेल विज्ञापन के पितामह बर्निक फिट्ज गिबन (Bernice Fitz Gibbon) की एक मशहूर कहावत है, ‘एक अच्छा विज्ञापन एक अच्छी सीख की तरह होनी चाहिए। ये किसी को सताने जैसा या दुख देना जैसा नहीं होना चाहिए। ली बर्नेट ने अलग बात कही है। वह कहते हैं कि मेरा मानना है कि विज्ञापन का सबसे बड़ा खतरा लोगों को भरमाने का नहीं बल्कि ये है कि हम लोगों को इतना बोर कर देंगे कि वो मौत को ही चुन लें। भूल जाइए राजनीति, पार्टनरशिप, उपदेश, प्रोपेगेंडा और पूर्वाग्रह। असली दिक्कत तो उपदेशक बनने से है।
(टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा लेख)