मत:ट्रंप पर हमले से भारत के लिए क्या संकेत हैं

लेख: ट्रंप पर हमला, भारत के लिए क्या हैं सबक
अमेरिका जैसे पुराने लोकतांत्रिक देश में रिपब्लिकन राष्ट्रपति उम्मीदवार डॉनल्ड ट्रंप की हत्या का प्रयास अचंभित करने वाली घटना है। ट्रंप इस हमले में बाल-बाल बचे हैं। दोनों हमलावर सुरक्षाकर्मियों की गोली का शिकार हो चुके हैं। हमले के कारणों का पता आने वाले समय में चलेगा, लेकिन इसकी सूचना आते ही पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने घटना की निंदा करते हुए कहा कि अमेरिकी समाज में हिंसा की कोई जगह नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि हमें सभ्य तरीके से व्यवहार करना चाहिए। राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी हमले की निंदा करते हुए यही बात कही। बाइडन ने ट्रंप से फोन पर बातचीत भी की।

नफरत का नैरेटिव
सच यह भी है कि डेमोक्रेटिक सहित अमेरिका के बुद्धिजीवी, मीडिया, यहां तक कि प्रशासन के एक बहुत बड़े वर्ग ने डॉनल्ड ट्रंप और उनकी विचारधारा के प्रति जिस ढंग से घृणा पैदा की है, उसका असर अमेरिकी समाज पर है। ट्रंप को हिटलर से लेकर न जाने क्या-क्या उपाधि दी गई है। उन्हें लोकतंत्र, अमेरिकी समाज और देश की एकता-अखंडता के लिए सबसे बड़ा खतरा बता दिया गया है। अमेरिका में ऐसे निहित स्वार्थी समुदाय हैं, जिनके अंदर यह भाव गहरा हुआ है कि अगर ट्रंप दोबारा राष्ट्रपति बने तो उनके लिए समस्याएं पैदा होंगी। बड़ी संख्या में गैर-अमेरिकियों और अवैध प्रवासियों को लगता है कि उन्हें देश से जाना पड़ सकता है या फिर उन्हें यहां कैंपों और जेलों में रहना पड़ सकता है।

चुनाव से बाहर करने का प्रयास
संयोग देखिए कि ट्रंप पर गोली उस समय चली जब वह एक चार्ट पढ़ते हुए बता रहे थे कि अमेरिकी सीमा पार करने वाले अवैध प्रवासियों की संख्या कितनी है। ट्रंप एवं उनके समर्थकों ने अमेरिका में अवैध रूप से आने और रहने को एक बड़ा मुद्दा बनाया है। इसे व्यापक समर्थन भी मिल रहा है। यह अनायास नहीं है कि ट्रंप को किसी तरह राष्ट्रपति की दौड़ से बाहर करने के हर प्रयास अमेरिका में हुए हैं, हो रहे हैं। सही कहिए या गलत, पर न्यायालय द्वारा सजा दिलाकर उन्हें राष्ट्रपति चुनाव लड़ने से वंचित करने की कोशिशें जारी हैं।

मोदी और संघ पर निशाना
इसी संदर्भ में भारत को देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, BJP और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे हिंदुत्व विचारधारा को मानने वाले संगठनों को लेकर ऐसा ही वातावरण बनाने की कोशिश हुई है। इन संगठनों को फासिस्ट, अल्पसंख्यक विरोधी, हिंसक, भारतीय समाज की एकता का दुश्मन लोकतंत्र और खुले समाज से नफरत करने वाला कहा गया है। विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने संसद में ही इन लोगों को हिंसा और नफरत का प्रतीक बताया। एक बड़े वर्ग के अंदर यह भावना पैदा कर दी गई है कि अगर देश व समाज को बचाना है तो इन सबको हर स्तर पर पराजित और कमजोर करना होगा। पूरे देश के एक बड़े तबके में उनके विरुद्ध घृणा और हिंसा का भाव पैदा हुआ है। स्वाभाविक है, इसकी प्रतिक्रिया में इन संगठनों के कार्यकर्ताओं, नेताओं और समर्थकों में भी गुस्सा पैदा हुआ है।

बढ़ रहा है गुस्सा
इस समय विश्व भर में इस तरह की प्रवृत्ति चिंताजनक रूप से उभरी है। पूर्व में क्रांति कर सत्ता बदलने के विचार-व्यवहार वाले कम्युनिस्टों की जगह एक ऐसी नव वाममार्गी विचारधारा पूरी दुनिया में दिख रही है जो राष्ट्रवाद, रिलीजन, मजहब और अपने देश की सभ्यता संस्कृति पर गर्व करने वाले संगठनों को लेकर घृणा और विरोध का नैरेटिव पैदा कर रहा है। उसके परिणाम भी सामने आए हैं। भारत और अमेरिका दो देश इस समय इन मामलों में सबसे आगे हैं। इन दोनों देशों के अंदर समाज में तनाव और गुस्सा धीरे-धीरे बढ़ाया गया है।

पारिवारिक संरचना का असर
यह अजीब किस्म का नया वामपंथ है जिसकी अपनी विचारधारा स्पष्ट नहीं लेकिन ये उसी तरह की रैडिकल बातें करता है। हैरत की बात यह है कि इनमें विश्व के बड़े-बड़े पूंजीपति, कॉरपोरेट, NGO और संस्थान शामिल हैं। अमेरिका में इनकी संख्या ज्यादा है। इसलिए उनका प्रभाव वहां सर्वाधिक दिखा है। भारत में संघ, BJP और ऐसे कुछ संगठनों के जमीनी काम की बदौलत यहां उनका वैसा प्रभाव नहीं दिखता है। कई बार एक ही परिवार में दोनों विचारधाराओं के लोग दिखते हैं। इस तरह की पारिवारिक सामाजिक संरचना दूसरे देश में नहीं है। सच कहें तो इसी कारण हम बचे हुए हैं। फिर भी समय-समय पर हिंसा, तनाव और संघर्ष यहां भी दिख जाते हैं।

चुनौती बड़ी है
डॉनल्ड ट्रंप की हत्या की कोशिश सबके लिए सबक होना चाहिए। राजनीति और सार्वजनिक जीवन में असहमति, मतभेद और वैचारिक टकराव स्वाभाविक हैं। किंतु राजनीति और सार्वजनिक जीवन में घृणा और दुश्मनी का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। हालांकि जैसा माहौल भारत, अमेरिका सहित कई देशों में बन चुका है, उसमें कोई तत्काल इससे सबक लेगा इसकी संभावना कम लगती है। इसलिए सबके सामने यही प्रश्न है कि स्थिति को संभालें कैसे।

(लेखक अवधेश कुमार विचारक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

 

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