हरयाणा में शास्त्रार्थ परंपरा,जेल तक गये आर्य शास्त्रार्थी
हरयाणा के प्रमुख शास्त्रार्थ
लेखक – पं० शान्तिप्रकाश शास्त्रार्थ महारथी
साभार – स्व चौधरी मे० चन्दन सिंह गुलिया बादली
प्रस्तुती – अमित सिवाहा
हरयाणा की वीर भूमि शास्त्रार्थो का घर है। ऐसा न समझें तो कोई आश्चर्य की बात नहीं । हरयाणा का हल चलाने वाला किसान भी दार्शनिक भाषा में तर्क करता हुआ दिखाई देता है ।
एक पादरी जी अपनी मैजिक लैंटन के साथ इसी हरयाणा प्रान्त के एक ग्राम में जाकर चित्र- पट पर हजरत ईसामसीह का चित्र दिखाकर कहने लगे कि यह मसीह का फोटो है जो खुदा का इकलोता बेटा था । इस पर ईमान लाओ तो वह तुम्हारे सब पापों को अपने कन्धों पर उठा लेगा और तुम्हारी मुक्ति हो जाएगी क्योंकि वही एक निष्पाप है जिसका संसार के पापों के क्षमा के लिए बलिदान हुआ। अतः मुक्ति चाहते हो तो खुदा के इकलौते पुत्र पर ईमान लाओ ।
इस पर एक ग्रामीण किसान उठा और कहने लगा कि पादरी साहिब ! यह तो बताओ कि खुदा को मरे हुए कितने दिन हो गए ? तब पादरी झुंझला कर बोला कि बैठ जाओ, खुदा कभी मरा नहीं करता । वह बोला कि हमारे यहां यह प्रथा है कि जब तक पिता की मृत्यु नहीं होती, पुत्र को कोई उसका स्थानापन्न नहीं मानता। बाप के मरे बिना बेटे के सिर पर पगड़ी नहीं रखी जाती और न उससे कोई कार्य-व्यवहार होता है । अतः यदि खुदा जीवित है तो ले जाओ उसके बेटे को । जब खुदा मर जाए तो उसे ले आना । तब हम सोचेंगे कि यह खुदा का इकलौता बेटा है या नहीं ।
पादरी जी झुंझलाकर अपना डेरा डंडा उठाकर चल दिये।
(२) हरयाणा के एक अन्य ग्राम में बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हुआ । सम्भवतः पौराणिक पण्डित जिला करनाल के थे। उन्होंने आर्यसमाज से सीधा प्रश्न किया कि वेद में जाटों को यज्ञोपवीत देना कहां लिखा है। तो आर्य समाज की ओर से उत्तर दिया गया कि जहां ब्राह्मणों को यज्ञोपवीत देना लिखा है वेद में उसी के नीचे ही जाटों को भी यज्ञोपवीत देने का विधान किया है।
पौराणिक हार गए क्योंकि वेद में स्पष्टतः ब्राह्मण शब्द के लिए यह विधान नहीं लिखा । वहां तो बुद्धियुक्त सभी के लिए विधान है।
(३) गोन्दर के एक सम्मेलन में मैं बोल रहा था कि बाल-विवाह मुसलमानों के आक्रमण काल में आर्य जाति ने करना शुरू किया क्योंकि वह आक्रान्ता कुंवारी कन्याओं को भगाना धर्मरहित कार्य अभिनन्दन न मानते थे। तब एक व्यक्ति ने उठकर पूछा कि यह कहां लिखा है ? प्रमाण दो। मेरे मुख सहसा निकला कि केसर महापुराण में लिखा है तो प्रश्नकर्त्ता व्यक्ति शान्त होकर बैठ गया।
पं० रामस्वरूप जी आदि प्रचारक महानुभाव मेरे से पूछते रह गए कि केसर महापुराण कौन- सा है ? मैंने कहा, म० केसरचन्द सभा के भजनोपदेशक और हरयाणा में दादा बस्तीराम जी ऐसा जैसे को तैसा उत्तर दिया करते हैं। यही केसर महापुराण है।
(४) दिल्ली हरयाणा से काट कर अंग्रेज सरकार ने राजधानी बनाई थी। वास्तव में दिल्ली पर हरयाणा की छाया है। पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज पुरानी एक कहावत कहा करते थे कि – लाहौर सिखों का, दिल्ली जाटों की अब भी दिल्ली सभी ओर से हरयाणा से ओत-प्रोत है।
१९३६ में मुझ पर आंग्ल सरकार ने कादयान केस चलाया। एक वर्ष के लिए मेरी जवान बन्दी हो गई अर्थात् मुझ पर शास्त्रार्थी ओर व्याख्यानों की रोक लगा दी गई।
२७ जनवरी १९३७ को में लाहौर हाईकोर्ट से सर्वथा मुक्त घोषित किया गया। आर्यों की जीत और अहमदी मिर्जाई पराजित हुए । तब २६ जनवरी १९३७ को अर्थात् अभियोग से हाईकोर्ट द्वारा विजयी होने के दो दिन पश्चात् मेरा मुहम्मद उमर शास्त्री, मौलवी फाजिल से आर्यसमाज दीवान- हाल के वार्षिकोत्सव के उपलक्ष्य में पुनर्जन्म पर एक बहुत बड़ा शास्त्रार्थ हुआ। मुहम्मद उमर कादयानी मिर्जाई थे। कादयानी मिजइयों ने एक हजार रुपये के पारितोषिक का चैलेन्ज उस व्यक्ति के लिए दिया था जो आर्यसमाज की ओर से अमर बलिदानी हुतात्मा पं० लेखराम की हत्या का षड्यन्त्र मिर्जा गुलाम अहमद कादयानी पर सिद्ध कर दे। तब मैंने कादयान में साढ़े छह घण्टे उक्त विषय पर युक्ति प्रमाण से उक्त बात सिद्ध कर दी थी जिस पर मुझे छह मास का कारावास मिला। संशन से अपील रद्द हो गई और हाईकोर्ट से पूर्ण विजय प्राप्त हुई। अतः मैंने दीवानहाल देहली के शास्त्रार्थ में घोषणा की कि मिर्जाई मुकाबला के लिए मेरा पुनर्जन्म हो गया है। क्योंकि उस समय के एक मिर्जाई शास्त्रार्थी ने यही शब्द कहे थे किन्तु मेरे इन शब्दों के दोहराने पर तालियों की गड़गड़ाहट से कुछ ऐसा समय बंधा कि मिर्जाई फसाद पर उद्यत हुए तो जनता और आर्य युवकों ने फसाद का षड्यन्त्र न चलने दिया। तब मैंने जवानी के जोश में कहा कि देखो श्री मिर्जा गुलाम अहमद जी अपने पुनर्जन्म की घोषणा करते अपनी एक पुस्तक दुरें समीन में कहते हैं कि– हुए
मैं कभी आदम, कभी मूसा, कभी याकूब हूं ।
नीज इब्राहीम हूं, नसलें हैं मेरी बेशुमार ॥
पुनः मैंने कहा कि मिर्जा जो अपना एक स्वप्न सम्बन्धी ईश्वरीय स्फुरण लिखते है कि :-
“अन्त में मैं एक अन्य रोया (ईश्वरीय स्फुरण) लिखता हूं कि मैं एक ऐसे स्थान पर बैठा हूं जहां चारों ओर वन है जिन में बैल, गधे, घोड़े, कुत्ते, सुकर, भेड़िये, ऊँट आदि प्रत्येक प्रकार के पशु विद्या- मान हैं और मेरे मन में ईश्वरीय स्फुरण हुआ कि यह सब मनुष्य हैं जो दुष्कर्मों से इन योनियों में हैं।”
तब मुसलमानों ने शोर मचा दिया कि मिर्जाई लोग मुसलमान नहीं है क्योंकि यह पुनर्जन्म मानने का लिख रहे हैं और हमारे कुरान शरीफ में पुनर्जन्म सिद्धान्त की गन्ध तक भी नहीं है। इस कुरान शरीफ से पुनर्जन्म के बहुत से प्रमाण देकर उन्हें निरुत्तर किया। इस शास्त्रार्थं से कितने ही पौराणिक लोग भी आर्यसमाज की शरण में आ गए थे ।
(६) हरयाणा में मैंने ईसाईयों से पहिला शास्त्रार्थ अम्बाला में जे० एस० प्रकाश साहिब से किया था। जब उन्होंने इञ्जीलों के प्रमाण दिये कि – जो कोई ईसामसीह पर राई दाने बराबर भी ईमान लाये तो उसमें इतनी शक्ति या जाती है कि अन्धों को आंख दे, लंगड़ों को टागें देकर उनका लंगड़ापन दूर कर दे। विष का उस पर प्रभाव न होगा। संसार की कोई भी बोली बिना सीखे वह बोल सके तथा मृतक को जीवित कर दे ।
(५) जब प्रोफेसर रामसिंह जी आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान थे तो उनकी ही प्रधानता में मैंने गांधी ग्राउन्ड देहली के विस्तृत मैदान में एक पादरी से बहुत बड़ा शास्त्रार्य किया था जिसे लोग अभी तक उसको याद करते हैं।
श्री जे० एस० प्रकाश ईसाई शास्त्रार्थी स्वयं लंगड़े थे। मैंने कहा अपनी लंगड़ी टांग ईमान के जोर से ठीक कर दो तो मैं ईसाई बन जाऊँगा। सारी जनता भी यही कहने लगी। तब उक्त महोदय ने ईमान का बल एकत्र करके मृतक जीवित कर दिखाने हेतु एक मास की अवधि मांगी ।
डाक्टर हरिप्रकाश जी अलंकार मैडीकल हाल मंत्री आर्यसमाज अम्बाला छावनी ने आर्यसमाज की ओर से जे० एस० प्रकाश को एक मास की अवधि की आज्ञा दे दी और घोषणा की कि एक मास के पश्चात् जे० एस० प्रकाश जी आदि ईसाई पादरी गांधी ग्राउन्ड अम्बाला छावनी में लाखों नर-नारियों के समक्ष मृतक को जीवित करने का चमत्कार दिखाकर इंजीलों की सत्यता का प्रमाण देंगे अन्यथा आर्य धर्म को स्वीकार कर लेंगे। आर्यसमाज अम्बाला छावनी ने इस अनोखे शास्त्रार्थ के प्रबन्ध के लिये दो सहब मुद्रा व्यय करने की आज्ञा दी । पादरियों ने पूना, इलाहाबादादि से योग्य ईसाई प्रचारकों को बुलाने का यत्न भी किया किन्तु एक लाख की जनता में ईसाईयों को लज्जित होना पड़ा और पादरी सर्जनदास गिल, पादरी इसमाईल, विद्यावती आदि का प्रवेश आर्य धर्म में हुआ ।
इस शास्त्रार्थ की सूचना समाचार पत्रों में छपते ही सारे भारत में ईसाईयों के साथ शास्त्रार्थी का प्रवाह रूप अश्वमेध चक्र चला तथा सर्वत्र मुझे दीर्घं यात्राएं करके भारत-विभाजन के पश्चात् के शास्त्रायों का पुनः प्रचलन करना पड़ा। पादरी अब्दुलहक्क जी के बल्लाबाद के शास्त्रार्थों में पराजित होने ने साथ ही ईसाई शास्त्रार्थ समर से भाग गए। इसके पश्चात् अब कभी कोई भोला-भटका पादरी ही आर्यसमाज के साम्मुख्य में जाता है।