‘कृण्वंतो विश्वमार्यंम्’: नये भारत में अभियानी स्वरूप गंवा बैठा सनातन
जीवित रहना है तो सनातन धर्म को फिर से करना होगा ‘कृण्वंतो विश्वमार्यंम्’ रुपांतरण – उत्पल कुमार
भारत ध्वज और भगवा ध्वज
सनातन को बनना होगा प्रसारवादी धर्म । … भारत को गैरकानूनी धर्मांतरण रोकने को कड़े कानूनों की भी आवश्यकता है – ऐसा कुछ जिसे भारतीय अधिकारी धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक अधिकारों की अपनी विकृत भावना से बड़े पैमाने पर टालते रहे हैं। – उत्पल कुमार
वरिष्ठ पत्रकार और संपादक आर. जगन्नाथन ने हाल ही में एक किताब प्रकाशित की है, ” धार्मिक राष्ट्र: भारत को मुक्त करना, भारत का पुनर्निर्माण “। इस 17 अध्यायों के संकलन का मुख्य उद्देश्य हिंदुओं को “भारत की आवश्यक धार्मिक विरासत पुनः खोजने और उसकी रक्षा को एकजुट होने” में मदद करना है। इसका एक अध्याय, ” सनातन (हिंदू) धर्म को एक अभियानी( मिशनरी) धर्म क्यों बनना चाहिए”, विशेष रूप से प्रासंगिक है क्योंकि सनातन धर्म अपनी जन्मभूमि में उन चुनौतियों का सामना कर रहा है जिनका सामना उसे करना ही था।

जगन्नाथन यह कहते हुए कि “ब्रह्मांड हमेशा कहीं न कहीं फैल रहा है या सिकुड़ रहा है” और “जीवन का अर्थ शरीर में कोशिकाओं को नष्ट करने के बजाय उन्हें जन्म देना है”, एक ठोस तर्क देते हैं कि अगर सनातन धर्म को अपने सामने आने वाली चुनौतियों से बचना है, तो उसे अपना अभियानी स्वरूप पुनः पाना होगा। वे लिखते हैं, “धर्म मूलतः भौतिक, भावनात्मक और मानसिक आयामों वाले विचार हैं। अगर वे विस्तार नहीं करते, तो वे सिकुड़ जाएँगे, भले ही यह प्रवृत्ति किसी के अपने जीवनकाल में स्पष्ट रूप से दिखाई न दे। लेकिन जब एक निर्णायक बिंदु आता है, तो धर्म अचानक ही समाप्त हो सकते हैं। अगर सनातन धर्म भविष्य में इस निराशाजनक नियति से बचना चाहता है, तो उसे अभी से विकास शुरू करना होगा।”
इसके बाद वे सनातनियों से आह्वान करते हैं कि वे भारत में हिंदू धर्म की लगातार घटती जनसांख्यिकीय गिरावट के जवाब के रूप में “धर्मांतरण पर प्रतिबंध” पर भरोसा न करें। जगन्नाथन कहते हैं, “कई राज्यों में पहले से ही धर्मांतरण पर प्रतिबंध हैं, लेकिन उनमें से कोई भी सनातन धर्म की संख्या गिरने में कामयाब नहीं हुआ है।” चीन का उदाहरण हैं, जहाँ कम्युनिस्ट शासन की उपहास दृष्टि के बावजूद ईसाई पंथ बढा है।
सबसे पहले सनातन के प्रसारवादी (मिशनरी) दावे पर गौर करना होगा। आज यह चाहे कितना भी असंभव लगे, सच्चाई यह है कि सनातन धर्म हमेशा से ही अभियानी रहा है, हालाँकि इसका अभियानी स्वरूप अब्राहमिक पंथों से बिल्कुल अलग है। बौद्ध पंथ के प्रचार-प्रसार से सनातन धर्म के अभियानी दृष्टि का अनुमान लगता है। मैकगिल विश्वविद्यालय में तुलनात्मक धर्म के प्रोफेसर अरविंद शर्मा ने अपनी 2014 की पुस्तक, ” हिंदू धर्म एक मिशनरी धर्म के रूप में” में बौद्ध पंथ के संदर्भ में दो बिंदुओं पर ध्यान दिलाया हैं: “पहला, बौद्ध पंथ अपनाने का मतलब यह नहीं कि अपनी पुरानी जीवनशैली ,सामाजिक रीति-रिवाज त्याग दें, हालाँकि वें काफी बदल सकते हैं; और दूसरा, व्यक्ति मठवासी व्यवस्था छोड़कर उसमें दोबारा जाने को स्वतंत्र है।”

प्रोफ़ेसर शर्मा अभियानी सनातन धर्म और अब्राहमिक पंथों में एक और दिलचस्प अंतर बताते हैं। “शायद यहाँ धर्मांतरण इच्छुक धर्मों और धर्मांतरण स्वीकारने वाले धर्मों में अंतर करना ज़रूरी है। धर्मांतरित लोगों को अपने धर्म में शामिल करने की चाहत ही धर्मांतरण संभव बनाती है,”
प्रोफेसर शर्मा लिखते और समझाते हैं कि कैसे अब्राहमिक पंथ मतांतरण चाहते हैं जबकि हिंदू नहीं! (इस मामले में, बौद्ध पंथ एक मतांतरणकारी पंथ है, लेकिन अब्राहमिक पंथों के विपरीत, यह नव-मतांतरितों से अपनी पिछली निष्ठाओं और संघों को त्यागने की अपेक्षा नहीं करता।) ऐसे सनातन धर्म दर्शाता है कि कैसे एक पंथ अभियानी और सहिष्णु दोनों हो सकता है क्योंकि, एक धार्मिक प्रयास ऐसे धर्मांतरित लोगों की सक्रिय तलाश करना है जो उसके अनुयायियों में श्रेष्ठता की सहज भावना पैदा करें। आख़िरकार, आप श्रेष्ठ नहीं हैं, तो दूसरों का मतांतरण क्यों करेंगे?
सनातन धर्म, अपनी सभ्यतागत और सांस्कृतिक पराकाष्ठा पर, एक उत्कृष्ट अभियानी धर्म था—अपनी भारतीय विशेषताओं में। इसी से प्राचीन काल में संस्कृत संस्कृति न केवल भारत की पारंपरिक सीमाओं में, बल्कि बाहर भी—मध्य और पश्चिम एशिया से लेकर पूर्व और दक्षिण-पूर्व एशिया तक—फलती-फूलती रही। एक प्रमुख भारतविद् लोकेश चंद्र का मानना है कि चीन को भूमध्य सागर से जोड़ने वाले प्रसिद्ध रेशम मार्ग का इस्तेमाल रेशम लाने-ले जाने के लिए शायद ही कभी किया जाता था। उनके लिए, यह वास्तव में एक “सूत्र मार्ग” था। वे कहते थे, “चीनी लोग रेशम का इस्तेमाल केवल राजनीतिक कूटनीति को करते थे; घोड़े लाने को वे रेशम की गांठें भेजते थे,” और आगे बताते थे कि कैसे भिक्षु और तीर्थयात्री संस्कृत पांडुलिपियाँ लेकर उस मार्ग से यात्रा करते थे और सनातन-बौद्ध ज्ञान का प्रसार करते थे।
ईसा युग से सदियों पहले, मध्य और पश्चिम एशिया में अधिकांशतः संस्कृत संस्कृतियाँ थीं। और यह हज़ारों शताब्दियों तक फलती-फूलती रही। यहाँ तक कि कुमारजीव ने कश्मीर में बौद्ध पंथ का अध्ययन किया, लेकिन वेदों के लिए उन्होंने काश्गर जाना पसंद किया! इससे यह भी पता चलता है कि शक, कुषाण और हूण जैसे अधिकांश मध्य एशियाई आक्रमणकारी भारत पहुँचने से पहले ही सनातन/बौद्ध थे। मनु ने उन्हें पतित क्षत्रिय कहा था। एक पतित क्षत्रिय सनातन धर्म में पुनः धर्मांतरण योग्य था। ये एक मिशनरी धर्म के स्पष्ट संकेत हैं, जो अब्राहमिक पंथों के कट्टरवाद से रहित है। सनातन धर्म के मिशनरी स्वरूप का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण आदि शंकराचार्य काल में प्रदर्शित हुआ—एक ऐसी गाथा जो इतनी प्रसिद्ध है कि उसे दोबारा दोहराया नहीं जा सकता।
मध्यकालीन और आधुनिक काल में भी इसी तरह की मिशनरी प्रवृत्ति दिखती है, जब हिंदूओं को अभूतपूर्व इस्लामी और यूरोपीय (छिपे हुए ईसाई) चुनौतियों का सामना करना पड़ा। चाहे वह चैतन्य आंदोलन हो या गुरु विद्यारण्य के हरिहर और बुक्का का पुनः धर्मांतरण, जिससे शक्तिशाली विजयनगर साम्राज्य स्थापित हुआ, ये सभी सनातन धर्म की मिशनरी प्रकृति याद दिलाते हैं। वास्तव में, अकबर शासनकाल में हिंदुओं की मिशनरी गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं, जब पूर्व सनातनियों को अपने पुराने धर्म में पुनः धर्मांतरण की अनुमति थी। जहाँगीर के शासनकाल में, जब उसे अपने 15वें वर्ष में पता चला कि राजौरी के हिंदू “धर्मांतरण कर रहे हैं और क्षेत्रीय मुस्लिम लड़कियों से शादी कर रहे हैं,” तो उसने आदेश दिया था कि यह प्रचलन रोका जाए और दोषी दंडित किये जाए। इसी प्रकार, शाहजहाँ के समय, जब वह अपने शासनकाल के छठे वर्ष कश्मीर लौटा, तो उसने “पता लगाया कि भदौरी और भीमसर के हिंदू मुस्लिम लड़कियों से शादी कर उन्हें हिंदू धर्म में परिवर्तित कर रहे थे।”… कहा जाता है कि ऐसे चार हज़ार धर्मांतरण के मामले सामने आए हैं। गुजरात और पंजाब के कुछ हिस्सों में भी कई मामले पाए गए।” शाहजहाँ ने धर्मांतरण से निपटने को विशेष विभाग स्थापित किया।
इस पृष्ठभूमि में, पाकिस्तानी इतिहासकार एस.एम. इकराम (1908-73) का कथन प्रासंगिक है। उन्होंने अपनी पुस्तक “मुस्लिम सिविलाइज़ेशन इन इंडिया” (1965) में लिखा है: “हिंदू धर्म को आमतौर पर एक मिशनरी धर्म नहीं माना जाता है, और अक्सर यह मान लिया जाता है कि मुस्लिम शासन में केवल हिंदू से इस्लाम में ही धर्मांतरण हुआ था। यह सच नहीं है। अब तक हिंदू धर्म बहुत आक्रामक हो चुका था और बड़ी संख्या में मुसलमानों को अपने में समेट रहा था।”
यह परिघटना आधुनिक समय में भी देखी जा सकती है, खासकर दयानंद सरस्वती के आर्य समाज और स्वामी विवेकानंद के रामकृष्ण मिशन मामले में। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दार्शनिक-राष्ट्रपति डॉक्टर एस. राधाकृष्णन मानते थे कि कभी हिंदू मिशनरी धर्म था, हालाँकि इसका मिशन-बोध कुछ अन्य पंथों से अलग था।
जहाँ तक जगन्नाथन के सुझाव की बात है—भारत में सनातन की लगातार घटती जनसांख्यिकी के समाधान में “धर्मांतरण पर प्रतिबंध” पर निर्भर न रहें—सरसरी तौर पर यह उचित विचार दिखता है लेकिन इन प्रतिबंधों का भारत और विदेशों में (उन्होंने चीन का उदाहरण दिया है) नगण्य असर हुआ है। लेकिन फिर एक समस्या है: एक, भारतीय कानून धर्मांतरण नहीं रोकते; यह गलत धर्मांतरण रोकता है। अब, चाहे यह सफल हो या न हो, किसी भी देश, खासकर एक लोकतंत्र में, गैरकानूनी जबरन धर्मांतरण अनुमति नहीं हो सकता। यह राज्य तंत्र की विफलता और बहुसंख्यक हिंदू आबादी की उदासीनता का परिणाम है। लेकिन फिर सिर्फ़ इसलिए कि यह विफल हो गया, कानून हटा देना वैसा ही होगा जैसे गलती से उंगलियाँ कट तो काटने वाली मशीन फेंक देना! भारत को गैरकानूनी धर्मांतरण रोकने को और भी कड़े कानून चाहिए – जिसे भारतीय अधिकारी अपने सैकुलर और अल्पसंख्यक अधिकारों की विकृत भावना से टालते रहे हैं।
साथ ही, संविधान के अनुच्छेद 30(1) पर पुनर्विचार का समय आ गया है , जो भेदभावपूर्ण प्रकृति का है और एक धर्मनिरपेक्ष देश में अल्पसंख्यकों को वरीयता देता है। अनुच्छेद में है: “सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा के आधार पर हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनके संचालन का अधिकार होगा।”
जगन्नाथन यह भी अपेक्षा करते हैं कि स्वतंत्रता बाद हिंदुओं की उत्साहहीनता के कारणों का पता लगाएँ। जिस धर्म ने लगातार इस्लामी और यूरोपीय हमलों के आगे घुटने नहीं टेके, वह स्वतंत्रता के बाद अपनी गति कैसे नहीं पकड़ पाया? आदर्श रूप से, सदियों के संघर्ष और कठिनाइयों बाद, यह सभ्यतागत भारत के उदय का क्षण होता। लेकिन सनातन के लिए हालात बिगडते गए, क्योंकि भारत ने एक पश्चिमी सिद्धांत सैकुलरिज्म अपनाया और उसे बहुलवादी, लोकतांत्रिक पारिस्थितिकी तंत्र पर कहर ढाने को उन्मादी नेहरूवाद से मिला दिया। सनातन, जिसे अंग्रेज भी, खासकर शुरुआती दौर में, एक प्रगतिशील धर्म मानते थे, जल्द ही खुद को हर अंधकार और खतरनाक चीज से जुड़ा पाया—सांप्रदायिकता, सामंतवाद, पितृसत्ता, अति-राष्ट्रवाद आदि।
जबकि अल्पसंख्यक संस्थान अनुच्छेद 30(1) में विशेष दर्जा प्राप्त थे, स्वतंत्र भारत में धर्मनिरपेक्ष राज्य ने हिंदू मंदिर और अन्य धार्मिक संस्थान हथिया लिये।
सर्वोच्च न्यायालय के वकील और लेखक जे. साईं दीपक ने अपनी पुस्तक, ” इंडिया दैट इज़ भारत: कोलोनियलिटी, सिविलाइज़ेशन, कॉन्स्टिट्यूशन ” में लिखा है कि भारतीय राज्य ने “कम से कम 15 हिंदू-विशिष्ट कानून” बनाए हैं जो राज्य के नियंत्रण को सक्षम बना हिंदू संस्थानों में राज्य की पैठ सुगम बनाते हैं। मंदिरों सहित हिंदू संस्थानों पर राज्य के कब्ज़े, जो आज भी है, ने मंदिर दिवालिया बना दिये । उनकी मुक्ति ही सनातन को उसके अभियानी स्वरूप की पुनः प्राप्ति की कुंजी है।
यदि कोई सनातन धर्म और विस्तार से भारत, के खतरे समझना चाहता है, तो उसे राष्ट्र-राज्य और धर्म, दोनों के बाहरी पहलुओं पर गौर करना होगा। आज, भारत के सीमावर्ती राज्य अत्यधिक तनाव और दबाव में हैं, जहाँ हिंदू हर साल तेज़ी से घट रहे हैं। यह स्थिति केवल भारत-पाकिस्तान या भारत-बांग्लादेश सीमाओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बंगाल,तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक जैसे शांत तटीय क्षेत्रों में भी है। इन क्षेत्रों में अधिकाधिक गैर-हिंदू बस्तियाँ बन रही हैं। इतिहास गवाह है, इन क्षेत्रों पर हिंदुओं की पकड़ कमज़ोर होने से जल्द ही भारत-विरोधी ताकतें बलवती होंगीं।
यह तभी रुकेगा जब इस मौन जनसांख्यिकीय युद्ध की प्रकृति समझने की राष्ट्रीय इच्छाशक्ति हो। और भारत के पक्ष में रुख मोड़ने को, सनातन को अपनी अभियानी विशेषतायें पुनः प्राप्त करनी होगी—लेकिन अंतर्निहित भारतीय विशेषताओं के साथ। अभियानी सनातन अब्राहमिक पंथों की नकल नहीं हो सकता। यह स्वयमेव अभूतपूर्व त्रासदी होगी।
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उत्पल कुमार
फर्स्टपोस्ट और न्यूज़18 के ओपिनियन एडिटर हैं।

