मत:नेहरू की भूलें बहुत मंहगी पड़ी भारत को
Nehru’s feet of Clay
नेहरूजी के व्यक्तित्व में अंतर्निहित कमज़ोरियाँ
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सबके अपने अपने संदर्भ होते हैं ।नेहरूजी से मेरा संदर्भ जुड़ता है सन् ६१ से जब मैं ७वीं कक्षा का विद्यार्थी था और भारत ने सैन्य अभियान चला कर सफलतापूर्वक पुर्तगालियों को खदेड़ कर गोवा,दमन और दिऊ को स्वतंत्र करवाया था।स्कूल में मिठाई बँटी थी और नेहरूजी के जयकारे लगाये गए थे और उसी उल्लासमय वातावरण में नेहरू नीत कांग्रेस पार्टी सन् १९६२ का आम चुनाव जीत गई थी।हालाँकि उस समय मैं मधेपुरा (बिहार) क्षेत्र में निवास कर रहा था और उस क्षेत्र से कांग्रेस के उम्मीदवार श्री ललित नारायण मिश्रा सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार श्री भूपेन्द्र नारायण मंडल से चुनाव हार गए थे। यह बात दीगर है कि वे तब भी केन्द्रीय सरकार में उपमंत्री बनाए गए थे और राज्यसभा के सांसद भी।परन्तु बात नेहरूजी की हो रही थी।मेरा परिवार घोर कांग्रेसी और पंडितजी का भक्त था। रेडियो -ट्रांजिस्टर पर आने वाला उनका संदेश पूरा परिवार एक साथ बैठ कर पूरी तैयारी से सारे कार्य निपटा कर व्यवधान रहित सुनता था।२४ मई १९६४ को मेरा उपनयन संस्कार हुआ और तीन दिन बाद ही पंडितजी का निधन हुआ।अखबारों में उनकी तस्वीरें छपीं और मैंने उनकी कटिंग कर एलबम बनाया था जिसमें उनके यज्ञोपवीत की तस्वीरें मुझे सबसे ज़्यादा प्रिय थीं।
लेकिन ज्यों ज्यों उमर बढ़ी और समझ बढ़ी नैसर्गिक रुप से मोहभंग होता गया।तदपि इस आलेख में मैं अपने विश्लेषण की बजाय नेहरू परिवार के करीबी जेनरल बी एम कौल की पुस्तक “द अनटोल्ड स्टोरी” से तीन प्रसंग उद्धृत करूंगा जहाँ उनके व्यक्तित्व की कमज़ोरियाँ उजागर होती हैं।
पहला अवसर है कश्मीर में शेख़ अब्दुल्ला की भारत विरोधी गतिविधियों के कारण गिरफ़्तारी का,दूसरा अवसर है गोवा मुक्ति को भारत के सैन्य अभियान का और तीसरा और राष्ट्र के लिए सबसे त्रासद और अपमानजनक अवसर सन्६२ में चीन से युद्ध में पराजय का।
पहला प्रकरण बकौल जेनरल बी एम कौल(The Untold Story,First Edition 1967,Allied Publishers page 146)
On 9 August when Nehru rang up Yuvraj Karan Singh and blew him up for allowing Abdullah to be arrested,the latter,after hearing only a part of the outburst and being shaken by Nehru’s blasting,handed over the telephone to A P Jain who had reached Shrinagar by then.Jain not being able to take in the tirade all by himself,passed the phone over to DP Dhar.It was all over by now bar the shouting.
Two days later,when I met Nehru in Delhi,he told me he was most annoyed that Abdullah had been arrested despite his orders to the contrary,but as the days went by,and public approbation mounted in support of ‘his’ strong action in Kashmir in an inflammatory situation,he reconciled himself to what had happened and accepted this ironical compliment.”
तो देखा कि किस प्रकार का था पंडितजी का कमजोर परन्तु छलिया व्यक्तित्व । वह नहीं चाहते थे कि शेख़ अब्दुल्ला गिरफ्तार हों परन्तु जब उनकी नाराज़गी से बेपरवाह उसे गिरफ्तार कर लिया तो उन्हें डाँट पिलाते रहे परन्तु जब जनता शेख की गिरफ़्तारी पर खुशी जताने लगी तो उसका श्रेय लेने से नहीं चूकेे।
कश्मीर और चीन को लेकर ग़लती पर ग़लती
जवाहरलाल नेहरु कश्मीर में गलती पर गलती करते रहे कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले गए. इसीलिए तो पाकिस्तान कहता है कि कश्मीर विवाद को भारत ही इस मंच पर लेकर गया था.
पंडित जवाहर लाल नेहरु के समय भारत–चीन संबंध और डोकलम विवाद पर एशिया के दोनों देशों में, जिस तरह से तनातनी का माहौल बनने पर, चीन अंतत: पीछे हटा, उसे गौर से समझने की आवश्यकता है. पंडित नेहरु की पिलपिली चीन नीति का परिणाम था कि देश को अपने पड़ोसी से 1962 में युद्ध लड़ना पड़ा और मुंह की खानी भी पड़ी थी. चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगा ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नेहरु के उदारवादी नारों को घूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा.उस युद्ध के 56 सालों के बाद आज भी,चीन हमारा अक्साई चिन कब्ज़ाये है.चीन का कब्जाया भारतीय इलाका 37,244 वर्ग किलोमीटर है.जितना क्षेत्रफल कश्मीर घाटी का है,उतना ही बड़ा है अक्साई चिन.
विदेश विभाग पंडित नेहरू ने अपने कार्यक्षेत्र में ही रखा था, परंतु कई बार उपप्रधानमंत्री होने के नाते कैबिनेट की विदेश विभाग समिति में सरदार पटेल को भी शामिल किया जाता. सरदार पटेल की दूरदर्शिता का लाभ यदि उस समय लिया जाता तो अनेक समस्याओं का जन्म ही नहीं होता. पटेल ने 1950 में पंडित नेहरू को लिखे एक पत्र में चीन तथा उसकी तिब्बत के प्रति नीति से सावधान रहने को कहा था. अपने पत्र में पटेल ने चीन को भावी शत्रु तक कहा था. लेकिन, नेहरु किसी की सुनते ही कहां थे.
जवाहरलाल नेहरू की भूलें भारत आज भुगत रहा है
नहीं झेल पाते थे आलोचना
चीन से पराजय के बाद 14 नवंबर,1963 यानी नेहरू के जन्मदिन पर संसद में युद्ध बाद की स्थिति पर चर्चा में नेहरु ने कहा- ‘मुझे दुख और हैरानी है कि विस्तारवादी शक्तियों से लड़ने का दावेदार चीन खुद विस्तारवादी ताकतों के नक्शेकदम पर चलने लगा.’ नेहरु बता रहे थे कि चीन ने कैसे भारत की पीठ पर छुरा घोंपा. वे बोल ही रहे थे कि करनाल सांसद स्वामी रामेश्वरानंद ने व्यंग्य किया, ‘चलो अब आपको चीन का असली चेहरा दिखने लगा.’ टिप्पणी पर नेहरु नाराज हो बोले, ‘अगर माननीय सदस्य चाहें तो उन्हें सरहद पर भेजा जा सकता है. सदन को भी नेहरु की यह बात समझ नहीं आई.’ पंडित नेहरु बोलते ही जा रहे थे. तब एक और सदस्य एच.वी.कामथ ने कहा, ‘आप बोलते रहिए. हम व्यवधान नहीं डालेंगे.’ अब नेहरुजी विस्तार से बताने लगे कि चीन ने भारत पर हमला करने से पहले कितनी तैयारी की थी. स्वामी रामेश्वरानंद ने फिर तेज आवाज में कहा, ‘मैं तो यह जानने में उत्सुक हूं कि जब चीन तैयारी कर रहा था, तब आप क्या कर रहे थे?’ नेहरु जी आपा खो कहने लगे, ‘मुझे लगता है कि स्वामी जी को कुछ समझ नहीं आ रहा. अफसोस है कि सदन में इतने सारे सदस्यों को रक्षा मामलों की पर्याप्त समझ नहीं है.’
नेहरु को बहुत डेमोक्रेटिक सिद्ध करने की कोशिश होती है, वह दरअसल छोटी सी आलोचना झेलने का माद्दा भी नहीं रखते थे. अपने को गुटनिरपेक्ष आंदोलन का मुखिया बताने वाले नेता चीन से संबंध मजबूत करना तो छोडिए, संबंधों सामान्य बनाने में भी मात खा गए.
भारत-चीन युद्ध (1962) के दौरान पं. नेहरू
फर्क तो देखिए
नेहरु के प्रधानमंत्रित्व काल में चीन से सम्मान और अपनी भूमि खोने वाले मोदी जी के नेतृत्व वाले भारत ने डोकलाम में चीन की औकात समझा दी. डोकलम विवाद पर भारत को 1962 की बार-बार याद दिलाने वाला चीन पीछे हटा था. याद नहीं आता जब चीन इस तरह कभी रक्षात्मक हुआ हो. वो डोकलम पर मात खा चुप हो गया. इसे कहते हैं पुनर्मुसिको भाव! उसे समझ में आ गया कि यदि उसने तनातनी की तो इस बार बहुत कसकर मार पड़ेगी. इस बार उसे समझा दिया गया कि भारत अब उसकी जान निकाल देगा.
डोकमाल पर चीन को शिकस्त भारत की अब तक की सबसे बड़ी ऐतिहासिक सफलता थी. विस्तारवादी चीन तो युद्ध की पूर्व भूमिका बना रहा था. लेकिन, भारत को पीछा हटता न देखकर चीन देखता रह गया. फिर चीन पर भी भारत में काम कर रही चीनी कंपनियों का भारी दबाव था कि वो भारत से जंग ना करे. आखिरकार उस स्थिति में चीन को ही हजारों करोड़ की आर्थिक नुकसान होता.
कश्मीर पर अक्षम्य भूल
कश्मीर विवाद तो नेहरू के सरासर जिद्दीपन की ही देन है. पाकिस्तानी सेना ने 22 अक्तूबर, 1947 को कश्मीर पर हमला बोला. कश्मीर सरकार के बार-बार आग्रह के बाद भी नेहरु जी कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने में देरी करते रहे. अंत में 27 अक्तूबर, 1947 को हवाई जहाज से श्रीनगर में भारतीय सेना भेजी गई. भारतीय सेना ने कबाइलियों को खदेड़ दिया. सात नवम्बर को बारामूला कबाइलियों से खाली करा लिया गया था परन्तु तभी नेहरु ने शेख अब्दुल्ला की सलाह पर युद्ध विराम कर दिया. अगर नेहरु ने वह ऐतिहासिक गलती न की होती तो सारा कश्मीर हमारे पास होता. यह बात पहेली ही है कि जब पाकिस्तान के कबाइली हमलावरों को कश्मीर से खदेड़ा जा रहा था तब नेहरु को संघर्ष विराम करने की इतनी जल्दी ही क्या थी. नेहरु की उसी भूल से आज भी मुजफ्फराबाद, पुंछ, मीरपुर, गिलागित आदि क्षेत्र पाकिस्तान के पास हैं. ये सभी क्षेत्र पाकिस्तानी आजाद कश्मीर के नाम से जाने जाते हैं. कश्मीर को पाकिस्तान से बचाने वाली भारतीय सेना की उस टुकड़ी का नेतृत्व भारतीय सेना के अफसर एस के सिन्हा कर रहे थे, जो बाद में जनरल और कश्मीर और असम के गवर्नर भी बने.
उन्होंने मुझे स्वयं बताया था कि नेहरू ने 1947 में सेनाओं को मुज़फ़्फ़राबाद जाने से रोक दिया था. मुज़फ़्फ़राबाद अब पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर की राजधानी है. जनरल सिन्हा ने यह भी बताया था कि भारतीय सेना उड़ी तक पहुंच गई थी,लेकिन नेहरु जी ने फैसला किया कि पुंछ को छुड़ाना ज़रूरी है.इसलिए भारतीय सेना मुज़फ़्फ़राबाद नहीं गई.
बहरहाल, नेहरु कश्मीर में गलती पर गलती करते ही रहे. वे कश्मीर का मुद्दा संयुक्त राष्ट्र ले गए. इसीलिए तो पाकिस्तान बार-बार कहता है कि कश्मीर विवाद भारत ही यूएन लेकर गया था.
नेहरु ने बाबा साहेब अम्बेडकर की सलाह की अनदेखी करते हुए भारतीय संविधान में धारा 370 जुड़वा दी थी. यह उन्होंने अपने परम प्रिय मित्र शेख अब्दुल्ला की सलाह पर किया था. इसमें कश्मीर को अलग संविधान को स्वीकृति दी गई जिसमें भारत का कोई भी कानून यहां की विधानसभा में पारित होने तक लागू नहीं होगा. यानी उन्होंने देश में दो संविधान का रास्ता बनाया।
कोको आइलैंड्स
जवाहरलाल नेहरू ने सन 1950 में भारत का कोको द्वीप समूह म्यांमार गिफ्ट दे दिया। बता दे यह आईलैंड कोलकाता से सिर्फ 900 किलोमीटर दूरी पर है। बाद में म्यांमार ने कोको द्वीप समूह चाइना को किराए पर दे दिया। जहां से आज भी चाइना भारत की हर गतिविधियों पर नजर रखता है।
काबू व्हेली मणिपुर
13 जनवरी 1954 को नेहरू ने भारत का दूसरा कश्मीर कहे जाने वाली “काबू व्हेली” दोस्ती की याद में बर्मा को दे दी, जो कि इनकी सबसे बड़ी गलतियो में से एक है। काबू व्हेली लगभग 11000 वर्ग किलोमीटर में फैली है. बर्मा ने काबू व्हेली का अधिकांश हिस्सा चीन को दे रखा है जिससे चाइना भारत पर नजर रख आए दिन मुठभेड़ करता रहता है। काबू दुनिया के सबसे खूबसूरत जगह में से एक है. जिसकी तुलना कश्मीर से की जाती है।
भारत-नेपाल विलय
साल 1952 में नेपाल के तत्कालीन राजा त्रिभुवन विक्रम शाह ने नेपाल को भारत मे विलय कर लेने की बात पंडित जवाहरलाल नेहरू से कही थी। लेकिन नेहरू ने बात टाल दी। उन्होंने कहा की नेपाल भारत में विलय होने से दोनों देशों को फायदे के बजाय नुकसान होगा और नेपाल का टूरिज्म भी बंद हो जायेगा। असल वजह थी नेपाल का अपनी सनातनी पहचान बनाये रखने का आग्रह जो नेहरू को पसंद न था।
यूएन परमानेंट सीट
नेहरू ने 1953 में अमेरिका की उस पेशकश को ठुकरा दिया, जिसमें भारत को सुरक्षा के स्थायी सदस्य के तौर पर शामिल होने के लिए कहा गया था। लेकिन नेहरू जी ने बिना सोचे समझे इसकी जगह चीन को सुरक्षा परिषद में शामिल करने की सलाह दे दी। जिसके वजह से चीन और पाकिस्तान दोनों मिलकर भारत के कई प्रस्ताव यूएन में ठुकरा देते हैं। हाल ही में आतंकवादी मसूद अजहर को अंतरराष्ट्रीय घोषित करने का भारत का यह प्रस्ताव चीन ने ठुकरा दिया।
जवाहरलाल नेहरू और लेडी मांउटबेटन
लेडी माउंटबेटन की बेटी पामेला ने अपनी किताब में जवाहरलाल नेहरू और लेडी माउंटबेटन संबंधों पर लिखा है। आश्चर्य है कि लॉर्ड माउंटबेटन भी जवाहरलाल नेहरू और लेडी माउंटबेटन को अकेला छोड़ देते थे। लेकिन लोग कहते हैं कि ऐसा कर के लॉर्ड माउंटबेटन जवाहरलाल नेहरू से भारतीय सेना और आर्थिक नीति की बातें निकलवाते रहे।
*आर के सिन्हा