अपना देहरादून, अतीत और वर्तमान

देहरादून की पलटन बाज़ार का इतिहास

घंटाघर के पास चाट वाली गली के मुहाने पर हनुमान मंदिर के पास 1925 की तस्वीर.

1803 ईसवी के अक्टूबर महिने में गोरखाओं ने देहरादून को अपने कब्जे में ले लिया था. राजा प्रद्युमन शाह ने मैदानी भाग में जाकर शरण ली. लंडोरा के गुर्जर राजा राम दयाल के साथ प्रद्युमन शाह के अच्छे संबन्ध थे. राजा राम दयाल की मदद से प्रद्युमन शाह ने लगभग बाहर हजार लोगों की सेना तैयार की और उस सेना को लेकर जनवरी 1804 में देहरादून में प्रवेश कर अपना खोया राज्य पुनः प्राप्त करने के लिये युद्ध किया.

राजा प्रद्युम्न शाह बहादुरी से लड़ते हुए खुड़बुड़ा में शहीद हो गये. प्रद्युम्न शाह के भाई प्रीतम शाह को बंदी बना लिया गया किन्तु राजा के बड़े लड़के सुदर्शन शाह बचकर ब्रिटिश शासित भूभाग में आ गये. इसप्रकार 1804 में देहरादून सहित पूरा गढ़वाल गोरखाओं के अधीन आ चुका था. उन्होंने यहां दस साल शासन किया.

प्रसिद्ध ब्रिटिश गोरखा युद्ध के बाद (खलंगा युद्ध का जिक्र अलग से करेंगे) सन् 1814 ई में दून ब्रिटिश हकूमत के अधीन आ चुका था. नेपाल की विघटित सेना के बचे हुये सैनिकों को लेकर अंग्रेजों ने बटालियन का गठन किया, इसमें मुख्य रूप से गोरखाली व गढ़वाली सिपाही थे. इसका नाम सिरमोर बटालियन रखा गया बाद में इसे 2nd गोरखा रेजीमेंट में शामिल किया गया. इस बटालियन ने मराठा अभियान व 1846 में एंग्लो सिक्ख युद्ध में ब्रिटिश शासकों को अपनी सेवायें दी. यह पहली सेना थी जो 1857 के सैनिक विद्रोह के खिलाफ ’बादली की सराय’ के युद्ध में उतारी गई थी. सन् 1864 ई में इस बटालियन को देहरादून में रहने के लिये कहा गया.

इधर ब्रितानिया हकूमत ने प्रशासन अपने हाथ में ले लिया था. 17 नवंबर 1815 को देहरदून को सहारनपुर जिले में शामिल करने का आदेश जारी हुआ. उत्तरी सहारनपुर के तत्कालीन सहायक कलेक्टर मि0 काल्वर्ट को देहरादून जाने का हुक्म हुआ. सन् 1822 में एफ जे शोर ने काल्वर्ट का स्थान लिया. एफ जे शोर को यहां का ज्वाइंट मजिस्ट्रेट व सुपरिटेंडेंट आफ दून बनाया गया. इनके कार्यकाल में काफी काम हुये.

इसी समय 1822-23 में देहरा को मैदान से जोड़ने वाली पहली सड़क सहारनपुर-देहरा-राजपुर रोड का निर्माण कराया गया. यह सड़क मोहंड दर्रे से प्रवेश कर आशारोड़ी से सीघा बिंदाल नदी पार करती हुई लक्खीबाग से उत्तर दर्शनी गेट की और धामावाला गांव से होकर आज के घंटाघर से गुजरती हुई राजपुर तक बनाई गयी. काफी समय बाद तक यह राजपुर रोड कहलायी जाती रही. उस समय राजपुर विकसित क्षेत्र था यहा रात्रि विश्राम के लिये धर्मशाला, अतिथि गृह आदि बने हुये थे. मसूरी तथा पहाड़ के गांवों में यहीं से आगे जाया जाता था.

सन् 1864 ई में ओल्ड सिरमोर बटालियन को देहरा में ही रहने के लिये कह दिया गया था. इस प्लाटून (पल्टन) के रहने के लिये छावनी बननी थी. इसी साल 1864 में मुख्य सड़क के नजदीक छावनी का निर्माण हुआ. आज के सिंधी स्वीट शाप से लेकर घंटाघर तक मुख्य सड़क से दोनों तरफ का क्षेत्र सेना के पास था. जंगम शिवालय के सामने की तरफ सैन्य अधिकारियों का आवासीय स्थल था. परेड ग्राउण्ड में गोरखा बटालियन बनी. सिरमोर और गोरखा बटालियन के सैनिकों व अधिकारियों के लिये पूजा स्थल व बाजार आदि बनाये गये.

सेंट थामस स्कूल के सामने रेंजर कालेज मैदान के बगल में काली मंदिर, नगर पालिका के पास कचहरी रोड वाला चर्च, उपर वाली सब्जी मंडी की बड़ी मस्जिद और घंटाघर के पास का हनुमान मंदिर इसी दौर में बने. आज जहां घंटाघर है वहां पानी की दो टंकी हुआ करती थी और साथ में तांगा स्टेंड था जहां से सवारी राजपुर के लिये जाया करती थी.

मुख्य मार्ग के बाजार में सेना की लोगों की आवाजाही होने लगी जिस कारण से इसका नाम पल्टन बाजार हो गया. जहां आज श्री गांधी आश्रम है वहां पर चाचा हलवाई की दुकान होती थी जो अंग्रेजी सटाईल की थी. वायसराय के प्रवास के दौरान यहीं से उनके खाने की व्यवस्था की जाती थी और इसी के बगल में जहां आज ग्रेंड बेकरी है वहां पर टंडन जी की हिमालय सोडावाटर फेक्ट्री हुआ करती थी, जहां से वायसराय के लिये शुद्ध पीने का पानी जाता था. घोसी गली के नुक्कड़ पर भिक्खन की चाय की दुकान होती थी जो उस समय के प्रगतिशील राजनीतिक लोगों के अड्डेबाजी का मुख्य केन्द्र थी.

घंटाघर के पास चाट वाली गली के मुहाने के हनुमान मंदिर में हमारी चौथी पीढ़ी पुजारी के रूप में विद्यमान है. आज से लगभग एक सौ चालीस साल पहले मेरे दादा जी के बड़े चचेरे भाई यहां आये थे फिर मेरे दादा और उसके बाद मेरे पिता और अनुज आज भी यहां विद्यमान हैं. मेरे घर के बुजुर्ग बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण मुरलीधर ने कराया था. यह परिवार धामावाला में रहता था. मुरलीधर के लड़के श्रीकृष्ण हुए. ये कलाल लोग थे.

शराब को बनाने व बेचने का पुश्तैनी व्यवसाय करने वालों को कलाल कहा जाता था. बाद में इस शराब के व्यवसाय को तुच्छ समझा जाने लगा जिस कारण कलाल लोगों ने यह व्यवसाय बंद कर दिया और भरतरी, आहुलूवालिया या वालिया उपनाम अपने साथ जोड़ा. 1925 में मंदिर के प्रबंधन के लिये ट्रस्ट बनाया गया भरतरी परिवार के सदस्य और गद्दीनशीन गुरूराम राय दरबार साहिब जिसके ट्रस्टी बनाये गये. पं. चन्द्र प्रकाश ने इसके मालिकाना हक को लेकर एक वाद दायर किया जिसको आगे बरेली वूल हाउस वाले भजन लाल ने आगे बढ़ाया पर इस मंदिर की व्यवस्था को मैंने अपने पिता द्वारा स्वयं करते देखा.

मुकदमे का कोई फैसला न होने के कारण 1977-78 में तत्कालीन जिला न्यायाधीश ने इस मंदिर का रिसीवर श्री सनातन धर्म सभा गीता भवन को नियुक्त किया वह आज भी इस मंदिर का रिसीवर है. इस मंदिर के प्रांगण में एक कुंआ था जिसको राजपूर नहर से भरा जाता था. मंदिर के साथ एक्स-सोलजर ट्रांस्पोर्ट का आफिस और सामने जहां आज अंबेडकर की मूर्ति है वहां एक फव्वारा होता था.

सिंधी स्वीट शाप के नीचे की तरफ मच्छी बाजार में सैनिकों की वेशभूषा के दुकानें आज भी उस पल्टन की याद दिला देती हैं. इस प्रकार सिरमोर बटालियन का बाजार होने की वजह से ही राजपुर रोड के इस हिस्से का नाम पल्टन बाजार पड़ा. सन् 1872 में यहां से दो मील दूर बिंदाल नदी के पश्चिम दिशा मे 550 एकड़ भूमि सेना को देकर 2nd गोरखा के लिये केंटोमेन्ट बना. अब पल्टन बाजार से सेना स्थानांतरित होने के कारण रिक्त बाजार को सन् 1874 में सुपरिंटेंडेन्ट आफ दून को एच. सी. रॉस को सुपुर्द किया गया. 1904-06 में बीरपुर की 742 एकड़ भूमि 9 जी गोरखा की दो बटालियन को देकर न्यू केंट का निर्माण हुआ.

सन्दर्भ – गज़ेटियर ऑफ़ दून और वृद्ध जनों से बातचीत के आधार पर

काफल ट्री तथा श्री विजय भट्ट से साभार 🙏

 

 

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