ज्ञान: फिलिस्तीनी-इसराइल संघर्ष में क्या कर सकता है भारत?
दिल्ली 15 मई। भारत के विदेश राज्य मंत्री वी मुरलीधरन ने एक ट्वीट करके 11 मई को कहा कि उन्होंने सौम्या संतोष के परिवार से बात की है और उनके निधन पर गहरी संवेदना व्यक्त करने के साथ हरसंभव सहायता का आश्वासन दिया है.
केरल की संतोष ग़ज़ा के साथ इसराइल की सीमा के पास अश्कलोन में घरेलू सहायिका थीं जिनकी मौत फिलिस्तीनी आतंकियों कै रॉकेट हमले से हुई थी.
मुरलीधरन ने ट्वीट में लिखा कि, “हमने यरुशलम में इन हमलों और हिंसा की निंदा की है और दोनों पक्षों से संयम बरतने का आग्रह किया है.” इस ट्वीट को भारत के विदेश मंत्री डॉक्टर एस जयशंकर ने रीट्वीट किया.
इनके अलावा भारत के विदेश मंत्रालय से इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच पिछले कुछ दिनों से चल रही हिंसा पर कोई बयान नहीं आया है।
संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति ने 11 मई को सुरक्षा परिषद की बैठक में पूर्वी यरूशलम की घटनाओं के बारे में मध्य- पूर्व पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा में था कि दोनों पक्षों को ज़मीन पर यथास्थिति बदलने से बचना चाहिए.
ग़ज़ा से रॉकेट दागे जाने की निंदा करते हुए तिरुमूर्ति ने कहा कि सभी पक्षों को संयम बरतने की ज़रुरत है और सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव नंबर 2334 का पालन किया जाना चाहिए. शांति वार्ता फिर से शुरू करने की ज़रुरत है.
12 मई को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद परामर्श में तिरुमूर्ति ने कहा कि भारत हिंसा की निंदा करता है, विशेषकर ग़ज़ा से रॉकेट हमले की.उन्होंने कहा कि तत्काल हिंसा ख़त्म करने और तनाव घटाने की ज़रुरत है।
प्रस्ताव नंबर 2334
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 2016 में पारित प्रस्ताव नंबर 2334 में कहा गया कि पूर्वी यरुशलम सहित 1967 के बाद से कब्जे वाले फ़लस्तीनी क्षेत्र में इसराइल बस्तियों की स्थापना की कोई कानूनी वैधता नहीं थी. प्रस्ताव में ये भी था कि अंतरराष्ट्रीय कानून में इन बस्तियों की स्थापना एक प्रमुख उल्लंघन था.
इतिहास पर नज़र डालें तो जहाँ भारत की फ़लस्तीनी लोगों के प्रति नीति सहानुभूतिपूर्ण रही है,वहीं पिछले कुछ सालों से इसराइल से भी उसकी नज़दीकियां काफी बढ़ गई हैं. ज़ाहिर है कि इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच चल रहा हिंसा का दौर भारत के लिए असमंजस की स्थिति है.
भारत ने 17 सितंबर, 1950 को इसराइल को मान्यता दी. इसके बाद यहूदी एजेंसी ने बॉम्बे में एक इमीग्रेशन कार्यालय की स्थापना की. इसे बाद में एक व्यापार कार्यालय और फिर वाणिज्य दूतावास में बदला गया. 1992 में पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित होने पर दोनों देशों में दूतावास खोले गए.
1992 में संबंधों में तरक्की होने के बाद से दोनों देशों के बीच रक्षा और कृषि के क्षेत्र में सहयोग बढ़ा. पिछले कुछ सालों में कई क्षेत्रों दोनों देशों के बीच सहयोग बढ़ा है.
जुलाई 2017 में नरेंद्र मोदी 70 वर्षों में इसराइल का दौरा करने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने. इसराइली प्रधानमंत्री बेन्यामिन नेतन्याहू ने मोदी की यात्रा को शानदार बताया था. दोनों देशों ने अंतरिक्ष, जल प्रबंधन, ऊर्जा और कृषि जैसे प्रमुख क्षेत्रों में सात समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे.
नेतन्याहू जनवरी 2018 में भारत आए. इस दौरान साइबर सुरक्षा, तेल और गैस सहयोग, फिल्म सह-निर्माण और वायु परिवहन पर सरकारी समझौते और पांच अन्य अर्ध-सरकारी समझौतों पर दस्तख़त किए गए.
इन यात्राओं से पहले, तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने 2015 में इसराइल का दौरा किया था जबकि इसराइल के राष्ट्रपति रूबेन रिवलिन 2016 में भारत के दौरे पर आए थे।
इसराइल के पूर्व राष्ट्रपति रूबेन रिवलिन के साथ भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी
फ़लस्तीनी मुद्दे का समर्थन
भारत के विदेश मंत्रालय के अनुसार फ़लस्तीनी मुद्दे पर भारत का समर्थन देश की विदेश नीति का एक अभिन्न अंग है. 1974 में भारत फ़लस्तीन मुक्ति संगठन को फ़लस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बना था.
1988 में भारत फ़लस्तीनी राष्ट्र को मान्यता देने वाले पहले देशों में से एक बन गया. 1996 में भारत ने ग़ज़ा में अपना प्रतिनिधि कार्यालय खोला जिसे बाद में 2003 में रामल्ला में स्थानांतरित कर दिया गया था.
अनेक बहुपक्षीय मंचों पर भारत ने फ़लस्तीनी मुद्दे को समर्थन देने में सक्रिय भूमिका निभाई है. संयुक्त राष्ट्र महासभा के 53वें सत्र के दौरान भारत ने फ़लस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार पर मसौदा प्रस्ताव को न केवल सह-प्रायोजित किया बल्कि इसके पक्ष में मतदान भी किया.
भारत ने अक्टूबर 2003 में संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव का भी समर्थन किया जिसमें इसराइल के विभाजन की दीवार बनाने के फैसले का विरोध किया गया था. 2011 में भारत ने फ़लस्तीन के यूनेस्को के पूर्ण सदस्य बनने के पक्ष में मतदान किया.
2012 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा के उस प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया जिसमें फ़लस्तीन को संयुक्त राष्ट्र में मतदान के अधिकार के बिना “नॉन-मेंबर आब्जर्वर स्टेट” बनाने की बात थी. भारत ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट भी किया. सितंबर 2015 में भारत ने फ़लस्तीनी ध्वज को संयुक्त राष्ट्र के परिसर में स्थापित करने का भी समर्थन किया.
भारत और फ़लस्तीनी प्रशासन के बीच नियमित रूप से उच्चस्तरीय द्विपक्षीय यात्राएं होती रही हैं.
अंतर्राष्ट्रीय और द्विपक्षीय स्तर पर मजबूत राजनीतिक समर्थन के अलावा भारत ने फ़लस्तीनियों को कई तरह की आर्थिक सहायता दी है.भारत सरकार ने ग़ज़ा शहर में अल अज़हर विश्वविद्यालय में जवाहरलाल नेहरू पुस्तकालय और ग़ज़ा के दिर अल-बलाह में फ़लस्तीन तकनीकी कॉलेज में महात्मा गांधी पुस्तकालय सहित छात्र गतिविधि केंद्र बनाने में भी मदद की है.
इनके अलावा कई प्रोजेक्ट्स बनाने में भारत फ़लस्तीनियों की मदद कर रहा है.
फरवरी 2018 में नरेंद्र मोदी फ़लस्तीनी क्षेत्र में जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. तब मोदी ने फ़लस्तीनी प्रशासन प्रमुख महमूद अब्बास को आश्वस्त किया कि भारत फ़लस्तीनी लोगों के हितों की रक्षा को प्रतिबद्ध है. मोदी ने कहा था, “भारत फ़लस्तीनी क्षेत्र को एक संप्रभु, स्वतंत्र राष्ट्र बनने की उम्मीद करता है जो शांति के माहौल में रहे।
भारत का असमंजस
प्रोफेसर हर्ष वी पंत नई दिल्ली स्थित ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में स्ट्रैटिजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के प्रमुख हैं. वे कहते हैं कि भारत सार्वजनिक रूप से हमेशा फ़लस्तीनियों का समर्थक रहा है लेकिन पर्दे पीछे इसराइल के साथ सम्बन्ध हमेशा अच्छे रहे.
वे कहते हैं, “इसराइल और भारत के बीच डिफेंस और इंटेलिजेंस के क्षेत्रों में पिछले दरवाज़े से सहयोग हमेशा से रहा है,चाहे कोई भी सरकार रही हो.लेकिन आधिकारिक मान्यता देने में भारत को अड़चन ये रहती थी कि अगर वो खुलकर इसराइल का साथ देगा तो उसके क्या परिणाम होंगे और भारत का मुस्लिम समुदाय इस बारे में क्या कहेगा और उसके क्या उलझाव हो सकते हैं.”
पंत के अनुसार 1992 के बाद भारत ने इसराइल से अपने रिश्तों को सार्वजनिक तौर पर आगे बढ़ाया जब पीवी नरसिम्ह राव की सरकार ने इसराइल से राजनयिक रिश्तों को औपचारिक किया था.
पंत का कहना है कि हालाँकि नरेंद्र मोदी इसराइल जाने वाले भारत के पहले प्रधानमंत्री बने लेकिन जहाँ तक दोनों देशों के बीच रिश्तों का सवाल था,वो कई वर्षों से था.वे कहते हैं, “जैसे कारगिल युद्ध में इसराइल ने भारत के साथ ज़रूरी जानकारियां साझा कीं और इंटेलिजेंस शेयरिंग भी. भारत को इसराइल से रक्षा उपकरण भी मिले। इसराइल लंबे समय से हमारी सुरक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है.”
रक्षा विशेषज्ञ सी उदय भास्कर भारतीय नौसेना के सेवानिवृत कमोडोर हैं. वे आजकल दिल्ली स्थित सोसाइटी फॉर पॉलिसी स्टडीज़ के निदेशक हैं.इसराइल और फ़लस्तीनियों के बीच जारी हिंसा और इस सबमें भारत की स्थिति पर वे कहते हैं, “यह बहुत नाज़ुक़ स्थिति है. भारत के लिए ये टाइट रोप वाक है. परंपरागत रूप से, भारत ने फ़लस्तीनियों का समर्थन किया है. भारत ने जब गुट निरपेक्ष सम्मेलन किया था तो यासेर अराफ़ात दिल्ली आए और उनका स्वागत हुआ था. लेकिन साथ ही नरसिम्ह राव के कार्यकाल में हमने इसराइल से औपचारिक संबंध स्थापित किए. भारत की कोशिश यही है कि फलस्तीनियों के मुद्दे और इसराइल से उसके द्विपक्षीय संबंधों के बीच संतुलन बनाकर रखा जाए.”
पंत का मानना है कि भारत की तरफ से राजनितिक संतुलन बनाए रखने की कोशिश हमेशा की गई. “मोदी इसराइल गए लेकिन उसके बाद फ़लस्तीन की भी यात्रा की. अरब देशों के साथ जिस तरह से सरकार ने रिश्ते बढ़ाए हैं, वो काफी महत्वपूर्ण है. नरसिम्ह राव से लेकर अब तक हर सरकार ने संतुलन बनाने की कोशिश की. लेकिन मोदी सरकार ने इसराइल का सार्वजनिक तौर पर जितना राजनयिक समर्थन किया, उतना पिछली सरकारों ने नहीं किया.”
पंत के अनुसार भारत ज़मीनी तौर पर संघर्ष पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकता और इसलिए भारत शांतिपूर्ण समाधान की अपील करते हुए रचनात्मक रुख ही अपना सकता है.
वे कहते हैं, “भारत के लिए इससे ज़्यादा कुछ कहने की संभावना ही नहीं . वहां जो हो रहा है वो ऐतिहासिक समस्या है. दोनों पक्षों की अपनी-अपनी ज़रूरतें हैं. दोनों ही पक्ष हिंसा का इस्तेमाल करते हैं.”
क्या इस भयंकर हिंसा के दौर में भारत संतुलन बनाये रख पायेगा? पंत कहते हैं कि अगर खाड़ी के अरब देश एक संतुलन का रुख कायम रख पा रहे हैं तो भारत भी ऐसा कर सकता है.
वे कहते हैं, “बयानबाज़ी को अरब देश कह देते हैं कि इसराइल एक समस्या है लेकिन सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के इसराइल के साथ अच्छे रिश्ते बन रहे हैं. पिछले साल हुए अब्राहम एकॉर्ड में देखा जा सकता है कि किस तरह अरब देशों ने इसराइल की तरफ हाथ बढ़ाया है. फ़लस्तीनियों का हल खाड़ी के अरब देश तक नहीं निकाल सकते तो इसमें भारत क्या करेगा.”
पंत का मानना है कि भारत राजनयिक संतुलन बनाए रखेगा और यह उसके लिए आसान भी है क्योंकि भारत की कोई सीधी हिस्सेदारी नहीं है. वे कहते हैं, “कोई भी भारत से मध्यस्थ के रूप में हस्तक्षेप करने को नहीं कह रहा है और भारत भी मध्यस्थ के रूप में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है.”
पंत यह भी कहते हैं कि अगर भारत चाहे तो वो इसराइल के पक्ष में बोल सकता है पर भारत ऐसा करेगा नहीं क्योंकि उससे और जटिलताएं पैदा हो जाएँगी. वे कहते हैं, “मोदी सरकार के लिए ये मुश्किल स्थिति है. भारत का मुस्लिम समुदाय पहले से ही मोदी के खिलाफ है.”
पंत के अनुसार अगर इस मसले को बाहरी नज़रिए से देखे, तो हमास एक देश की ताकत को चुनौती दे रहा है. “हमास अंतरराष्ट्रीय कानून में मान्यता प्राप्त संस्था नहीं है. इज़राइल मान्यता प्राप्त राष्ट्र है.”
वे कहते हैं, “हर देश इसे अपने राष्ट्रीय हित के नज़रिए से देख रहा है और अमेरिका और अरब खाड़ी देशों के अलावा इनमें से किसी भी देश के पास इसमें योगदान करने को कुछ भी नहीं है. कोई हल निकल सकता है तो अमेरिका या अरब देश ही निकाल सकते हैं. अगर उनकी ही भूमिका अस्पष्ट है तो भारत भी किसी एक पक्ष की तरफ झुकाव दिखाने से बचेगा.”
2018 के भारत दौरे के दौरान बिन्यामिन नेतन्याहू भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ
भारत इसराइल संबंध
भारत इसराइल से महत्वपूर्ण रक्षा टेक्नॉलोजी का आयात करता है। दोनों देशों की सेनाओं में भी नियमित आदान-प्रदान होता है. सुरक्षा मुद्दों पर दोनों देशों साथ काम करते हैं. दोनों देशों के बीच आतंकवाद विरोधी संयुक्त कार्यदल भी है.
फरवरी 2014 में भी भारत और इसराइल ने तीन महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर किए थे.समझौते आपराधिक मामलों में आपसी कानूनी सहायता, होमलैंड सुरक्षा और खुफिया जानकारी सुरक्षित रखने से जुड़े थे.
2015 से भारत के आईपीएस अधिकारी हर साल इसराइल की राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में एक हफ़्ते की ट्रेनिंग को जाते हैं.
इसराइली लोगों ख़ास तौर पर युवाओं के लिए भारत सैर-सपाटे की पसंदीदा जगह है. 2018 में 50,000 से ज़्यादा इसराइलियों ने भारत का दौरा किया, जबकि 70,000 से ज़्यादा भारतीय पर्यटक इसराइल घूमने गए.
भारत से जुड़े कई पाठ्यक्रमों को तेल अवीव विश्वविद्यालय, हिब्रू विश्वविद्यालय और हाइफा विश्वविद्यालय में पढ़ाया जाता है.
2019 के आंकड़ों के अनुसार इसराइल में 550 भारतीय छात्र थे जिनमें ज्यादातर डॉक्टरेट और डॉक्टरेट बाद की पढ़ाई कर रहे थे. इसराइल भारतीय छात्रों को शॉर्टटर्म समर स्कॉलरशिप भी देता है.
इसराइल में तक़रीबन 14,000 भारतीय नागरिक रह रहे हैं, जिनमें से लगभग 13,200 इसराइली बुज़ुर्गों की देखभाल करने का काम करते हैं. इसके अलावा हीरा व्यापारी, आईटी प्रोफेशनल्स और छात्र हैं.
इसराइल में भारतीय मूल के लगभग 85,000 यहूदी हैं जो सभी इसराइली पासपोर्ट धारक हैं.1950 और 1960 दशकों में भारत से बहुत लोग इसराइल चले गए थे. इनमें से ज़्यादातर लोग महाराष्ट्र से गए और बाकी केरल, पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर राज्यों से।