बौद्धिक षड्यंत्र: 640 से 1192 ईस्वी के भारतीय इतिहास पर मिट्टी क्यों पड़ी रही?
भारत के इतिहास और जीवन-भाग्य को निर्धारित करने वाले के रूप में इतिहास के हर गम्भीर अध्येता को बहुत डूबकर ईस्वी 630 से लेकर 1200 ईस्वी के बीच के इतिहास को अनिवार्यतः पढ़ना चाहिए।
इस अध्ययन के दौरान राजपूत काल के अन्तर्गत विभिन्न क्षेत्रीय राजवंशों का विस्तृत अध्ययन करने के साथ साथ हमें अरब-तुर्क साम्राज्यवाद के उदय व इस्लाम धर्म के प्रसार को भी उतने ही विस्तार से पढ़ने की जरूरत है। भारत के उत्तर पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर अवस्थित समस्त भूभाग तथा 640 ईस्वी से लेकर 712 ईस्वी में सिंध पर अरबों के आक्रमण के समय तक इस्लाम का विश्व में प्रसार किये जाने की कोशिश को भी घटनावार जानने की जरूरत है।
गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य के हाथों राष्ट्र की लगभग 300 वर्ष तक रक्षा होती रही। नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय, मिहिरभोज प्रभास, महेन्द्रपाल प्रथम व महीपाल के शासनकाल के दौरान —- 730 ईस्वी से लेकर 948 ईस्वी तक भारत बर्बर हिंसक अरबों की आंधी से पूर्णतया सुरक्षित रहा।
गुर्जर प्रतिहारों के अपरिमित पराक्रम के चलते ही कट्टर व धर्मांध इस्लाम सिन्धु व मुल्तान में आठवीं सदी में स्थापित होने के बावजूद लगभग 300 वर्षों तक भारतीय भूभाग में कदम रखने की हिम्मत नहीं कर सका। हर इतिहासकार इस पर आश्चर्य व्यक्त करता है कि जो इस्लाम धर्म विश्व के अन्य भागों में इतनी क्षिप्रतर गति से फैल गया, उसे भारतीय राजपूत राजाओं ने 300 वर्षों तक न केवल सफलतापूर्वक रोके रखा बल्कि उसे नियन्त्रित भी रखा।
अकेले गुर्जर-प्रतिहारों ने जितने समय तक पापपूर्ण अरब तूफान का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया, उतने समय तक तो कुछ राजवंशों का अस्तित्व तक न रहा।
एक बात हमें बहुत गहरे से जाननी चाहिए कि इस्लाम धर्म और अरब साम्राज्यवाद ने 640 ईस्वी से लेकर तरायन के युद्ध मे अंतिम रूप से भारत भूमि में स्थायी साम्राज्य स्थापित कर लिए जाने के दौरान पूरे 552 वर्षों यानी 640 ईस्वी से 1192 ईस्वी के बीच भारतीय भूभाग में अपना विस्तार, प्रसार करने के लिए पूरी तरह आक्रामक, प्रतिबद्ध व सचेष्ट रहे। लेकिन उन्हें कोई सफलता खास मिली नहीं।
दुःखद यह है कि इस कालखण्ड के दौरान इतिहास की पाठ्यपुस्तकों व ग्रन्थों में हमें इस विषय की सूचना व ऐतिहासिक विवरण बहुत न्यून मात्रा में प्राप्त होता है।
712 ईस्वी से लेकर 1192 ईस्वी के कालखण्ड के दौरान अरब आक्रान्ता व बर्बर इस्लाम की कोई कोशिश कभी भी थमी नहीं जब उसने भारत में राजनीतिक शक्ति स्थापित करने की कोशिश रोकी हो, यह अलग बात है कि 1192 के पहले उसे अपने प्रयत्न में कोई सफलता नहीं मिली।
वे अरब आक्रान्ता, लुटेरे व मुल्तान, सिंध, काबुल, ईरान, मंसूरा के अरब आक्रमणकारी कौन थे जो बार-बार गुर्जर प्रतिहारों व उसके बाद चंदेलों, परमारों, चौहानों, गहड़वालों से टकराते रहे और पराजित होते रहे ??
तत्समय के अरब इतिहास लेखकों व यात्रियों यथा —- अल बिलादूरी, अल सुलेमान, अल मसूदी, इब्न-उल-अतहर, हसन निजामी तथा निजामुद्दीन के विवरणों को पढ़कर इतिहास के विद्यार्थी इसे अच्छे से जान सकते हैं।
जुनैद से लेकर मोहम्मद गोरी के बीच कौन कौन अरब-तुर्क आक्रान्ता इस दौरान इस्लाम धर्म का प्रसार व साम्राज्यवाद स्थापित करने के लिए प्रतिबद्ध थे —- इसकी जानकारी अध्येताओं को न के बराबर है।
यह हमारे इस कालखण्ड के इतिहास लेखन की सबसे बड़ी सीमा है।
और यह जानबूझकर किया गया है।
हमें वहीं से इतिहास को पढ़ाया गया है जब हम पददलित, पराजित व क्लान्त हुए !
हमारे जातीय गौरव के उस अध्याय को भुलाया गया जान बूझकर ताकि इस पूरे कालखण्ड को केवल अन्धकार-काल कहा जा सके।
लेकिन मैं फिर कहूँगा इतिहास के हर अध्येता से कि वह इस कालखण्ड विस्तृत अध्ययन करे।
गुर्जर प्रतिहार वंश, गहड़वाल वंश, परमार वंश, चंदेल वंश, चाहमान वंश, चालुक्य वंश, राष्ट्रकूट वंश आदि का विस्तार से अध्ययन करने के साथ साथ अरब तुर्क साम्राज्यवाद व इस्लाम धर्म का विस्तार —– भी उतनी ही विहंगम दृष्टि से अवलोकित करे तभी उसमें प्रखर ऐतिहासिक बोध व ऐतिहासिक समझ विकसित हो सकेगी।
कितने विद्यार्थी ठीक से नागभट्ट प्रथम, नागभट्ट द्वितीय, वत्सराज, मिहिरभोज, महेन्द्रपाल, यशोवर्मन, हर्ष, धन्गा, विद्याधर, मदनवर्मा, कीर्तिवर्मन, सोमेश्वर, विग्रहराज, गोविंदचन्द्र आदि के बारे में जानते हैं ?
कृत्यकल्पतरु के महान लेखक लक्ष्मीधर की अलौकिक शक्तियों व अपार कूटनीतिक क्षमता का ज्ञान कितने लोगों को है ?
गौरीशंकर हीराचन्द ओझा, दशरथ शर्मा, कर्नल टॉड, गोपीनाथ शर्मा, सी वी वैद्य, के एम मुंशी, रमेश चन्द्र मजूमदार, सीताराम गोयल, कनिंघम, रामस्वरूप, वीर सावरकर आदि को छोड़ दीजिए तो आप जो पढ़ते आये हैं वही सबसे दूषित व करकट सामग्री है।
यहां सर्वाधिक काम करने की जरूरत है।
✍🏻लेखक : शिव कुमार