काबुल के आखिरी मंदिर के पुजारी का संकल्प,जान जाऐ तो जाये, मंदिर नहीं छोडूंगा
अफगानिस्तान के आखिरी मंदिर के आखिरी पुजारी की आखिरी ख्वाहिश
हम जिसकी बात कर रहे हैं वो रतननाथ मंदिर के पुजारी पंडित राजेश कुमार हैं. जिन्होंने काबुल छोड़ने से इनकार कर दिया है. पंडित राजेश कुमार का कहना है कि जान बचाकर भागने से अच्छा है कि मैं अपने भगवान के लिए समर्पित हो जाऊं और यहीं जान दे दूं.
अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जे के बाद स्थिति भयावह हो चुकी है. लोग अपनी जान बचाने के लिए किसी तरह वहां से भाग रहे हैं. हजारों लोग अफगानिस्तान से जैसे-तैसे दूसरे देशों में शरण ले रहे हैं. वहीं काबुल में एक ऐसे पुजारी हैं जिन्होंने मरना चुना है लेकिन मंदिर की सेवा छोड़कर भागना नहीं. वैसे तो अफगानिस्तान के कई नेता और मंत्री अपना देश छोड़ चुके हैं जिसमें राष्ट्रपति अशरफ गनी भी शामिल हैं.
कई बार आपने फिल्मों में देखा होगा कि अगर जहाज डूब रही होती है तो कैप्टन सबसे पहले सभी यात्रियों को सुरक्षित उतार लेता है फिर खुद की सोचता है, वह भले जहाज के साथ डूब जाता है लेकिन वह अपनी सेवा नहीं छोड़ता. अब अफगानिस्तान का हाल तो किसी से छिपा नहीं है, तालिबानी बोल कुछ और रहे हैं और वहां से आने वाली तस्वीरें कुछ और कहानी कह रही हैं.
पुजारी ने कहा तालिबान ने मुझे मारा तो मैं इसे मंदिर के प्रति अपनी सेवा समझूंगा
अफगानिस्तान से बड़ी संख्या में लोग देश छोड़कर जाना चाहते हैं, जिन्हें मौका मिल रहा है वे जा भी रहे हैं. दूसरे देश भी वहां फंसे हुए अपने नागरिकों को निकालने की कोशिश कर रहे हैं. सबसे ज्यादा परेशानी अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को होने वाली है.
हम जिसकी बात कर रहे हैं वो रतननाथ मंदिर के पुजारी पंडित राजेश कुमार हैं. जिन्होंने काबुल से जाने से इनकार कर दिया है. पंडित राजेश कुमार का कहना है कि जान बचाकर भागने से अच्छा है कि मैं अपने भगवान के लिए समर्पित हो जाऊं.
पुजारी ने बताया कि ‘हिंदू समुदाय के लोगों ने मुझसे काबुल छोड़कर साथ चलने के लिए कहा. उन्होंने मेरे लिए सारा इंतजाम करने को कहा लेकिन मेरे पूर्वजों ने सैकड़ों वर्षों तक इस मंदिर की सेवा की, मैं इसे नहीं छोड़ूंगा. अगर तालिबान मुझे मारता है, तो मैं इसे अपनी सेवा मानता हूं.’
क्यों काबुल के रतननाथ मंदिर को नहीं छोड़ना चाहते हैं पुजारी पंडित राजेश कुमार
पंडित राजेश कुमार ने कहा कि कुछ हिंदुओं ने मुझसे काबुल छोड़ने के लिए कहा, उन्होंने मेरे ट्रैवल और मेरे रुकने का प्रबंध करने का भी प्रस्ताव दिया. लेकिन मेरे पूर्वजों ने सैंकड़ों वर्षों तक इस मंदिर की सेवा की है और अब मैं इसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकता हूं.
रतननाथ मंदिर काबुल में बचा आखिरी मंदिर है.
15 अगस्त को तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा कर लिया. तालिबान के काबुल पहुंचते ही राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने सीनियर स्टाफ मेंबर्स के साथ देश छोड़कर ओमान में जा बसे हैं. पूरे देश में हाहाकार की स्थिति है. इन सबके बीच काबुल स्थित रतननाथ मंदिर के पुजारी पंडित राजेश कुमार ने देश छोड़कर जाने से साफ इनकार कर दिया है. उन्होंने यह बात तब कही है जब अफगानिस्तान के कई लोग अपनी जान बचाने के लिए देश से निकलने को बेकरार हैं.
‘तालिबान के हाथों मौत होगी मेरी सेवा’
पंडित राजेश कुमार ने कहा है, ‘कुछ हिंदुओं ने मुझसे काबुल छोड़ने के लिए कहा, उन्होंने मेरे ट्रैवल और मेरे रुकने का प्रबंध करने का भी प्रस्ताव दिया. लेकिन मेरे पूर्वजों ने सैंकड़ों वर्षों तक इस मंदिर की सेवा की है और अब मैं इसे ऐसे छोड़कर नहीं जा सकता हूं. अगर तालिबान मुझे मार देता है तो मैं इसे अपनी सेवा समझूंगा.’ पंडित राजेश का यह बयान @BharadwajSpeaks के हवाले से सामने आया है. रतन नाथ मंदिर, काबुल का आखिरी बचा हिंदु मंदिर है, जहां पर सामान्य दिनों में पूजा करने के लिए हिंदु अनुयायियों की भीड़ देखी जा सकती थी.
हिंदु और सिख नेताओं से मिले तालिबानी लीडर्स
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने सोमवार को एक के बाद एक कई ट्वीट किए और लिखा है, ‘ काबुल में हालातों पर लगातार नजर रखी जा रही है. जो लोग भारत वापस आना चाहते हैं, उनकी चिंता और बेचैनी को भी समझा जा रहा है. मगर एयरपोर्ट ऑपरेशंस इस समय सबसे बड़ी चुनौती हैं. इस दिशा में अपने साथियों से लगातार चर्चा जारी है. ‘ उन्होंने बताया कि काबुल में मौजूद सिख और हिंदु समुदायों के नेताओं के साथ भी संपर्क बनाया गया है. जो खबरें अभी काबुल से आ रही हैं, उसके मुताबिक तालिबान लीडर्स ने देश में फंसे हिंदु और सिख आबादी के एक ग्रुप से मुलाकात की है. तालिबान ने इन्हें सुरक्षा का भरोसा दिलाया है. इस समय 300 सिखों और हिंदुओं ने काबुल के कारते परवान गुरुद्ववारे में शरण ली हुई है.
कब से शुरू हुआ पलायन
अफगानिस्तान में इस समय करीब 10 गुरुद्वारे और मंदिर हैं जिसमें से ज्यादातर काबुल में ही हैं. फरवरी 2020 में अफगानिस्तान की सरकार ने इन मंदिरों और गुरुद्ववारे के पुर्ननिर्माण के लिए फंड जारी किया था. इतिहासकार इंद्रजीत सिंह के मुताबिक साल 1970 के दशक तक अफगानिस्तान में 2 लाख सिख और हिंदु थे जिसमें से 60 फीसदी सिख और बाकी 40 फीसदी हिंदुओं की आबादी थी. साल 1988 में बैसाखी के कार्यक्रमों के दौरान जब एके-47 से जलालाबाद में गुरुद्ववारे में सिखों पर हमला किया गया और 13 सिखों को मार दिया गया तो पलायन शुरू हो गया. उस घटना में 4 अफगान सैनिकों की भी मौत हो गई थी.
सच में कुछ लोग कमाल ही करते हैं, ऐसा हमने फिल्मों में देखा था. देशभक्ति क्या होती है, किसी काम के प्रति निष्ठा क्या होती है, अडिग होना क्या होता है यह हमें पुजारी पंडित राजेश कुमार से सीखना चाहिए. इनके पास काबुल को छोड़ने का मौका था. ये उस मंदिर के आखिरी पुजारी हैं, इन्होंने अपने धर्म के लिए मरना चुना लेकिन मंदिर की सेवा करना नहीं छोड़ा. हिंसा, कट्टरता और श्रद्धा में फर्क इसे कहते हैं