मत:उ.प्र. में संगठन बड़ा या सरकार? योगी/मौर्य विवाद से क्या निकल कर आया?
उत्तर प्रदेश में एक बार फिर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की एनकाउंटर पॉलिटिक्स काम करती नजर आ रही है. योगी आदित्यनाथ ने फिर से साबित कर दिया है कि संगठन अपनी जगह है.संगठन अपनी जगह है, बाकी जगह संगठन बड़ा हो सकता है – लेकिन उत्तर प्रदेश में ‘सरकार’ से बड़ा कोई नहीं है.
नई दिल्ली,18 जुलाई 2024, योगी आदित्यनाथ नये मिशन में पूरे मनोयोग से जुट गये हैं. उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव के लिए टीम बनाकर सभी की जिम्मेदारी तय कर दी है. खास बात ये है कि उप मुख्यमंत्री केशव मौर्य को न टीम में जगह दी है, न जिम्मेदारी. केशव मौर्य के साथ- साथ दूसरे उप मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक को भी जिम्मेदारी से वंचित रखा है. केशव प्रसाद मौर्य भी दिल्ली से लखनऊ लौट चुके . एयरपोर्ट से निकल मुस्कुराते हुए ही सबसे मिले, लेकिन मीडिया से दूरी बना चुपचाप घर चले जाना भी इसी बात का सबूत है.
उप चुनावों को जीतने में योगी आदित्यनाथ वैसे ही जुटे हैं, जैसे 2019 के आम चुनाव में 2018 के उपचुनावों में हारी हुई सीटें जीतने के लिए पूरी ताकत लगा दिये थे. 2018 में भाजपा गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीटों पर हुए सभी उप चुनाव भाजपा हार गई थी, लेकिन योगी आदित्यनाथ नें साल भर बाद ही हिसाब बराबर कर लिया था – हालांकि, 2024 के उपचुनाव उतने आसान नहीं हैं. उत्तर प्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव भी खासे सक्रिय हैं, और भाजपा में कुछ दिनों से मची हलचल पर नजर भी रखे हुए हैं. सोशल मीडिया के जरिये कभी हमला तो कभी कटाक्ष कर रहे हैं, लेकिन भाजपा की तरफ से केशव प्रसाद मौर्य ने ही जवाब दे दिया है कि 2027 में भी भाजपा 2017 दोहराएगी – योगी आदित्यनाथ को भला और क्या चाहिये?
क्या उत्तर प्रदेश में संगठन पर ‘सरकार’ भारी है?
उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की सक्रियता का तो कोई असर नहीं हुआ , लेकिन सरकार से बड़ा संगठन वाला उनका बयान वायरल हो गया – और उत्तर प्रदेश भाजपा की राजनीति में एक बार फिर बहस छिड़ गई – सरकार बड़ी है, या संगठन बड़ा है? और इस बहस में निशाने पर थे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ.
योगी आदित्यनाथ न संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं, न कभी भाजपा के कार्यकर्ता रहे. गोरखपुर के मठ में आने के बाद महंत बने और सियासत भी विरासत में मिली. गोरखपुर से सांसद बने, और भी बनते ही रहे.
योगी आदित्यनाथ जब पहली बार सांसद बने तो केंद्र में एनडीए की सरकार बन गई थी, और जब पांचवी बार संसद पहुंचे तो फिर से एनडीए की केंद्र की सत्ता में वापसी हो चुकी थी. पांच बार सांसद होकर भी एनडीए की किसी भी सरकार में कैबिनेट मंत्री कौन कहे, योगी आदित्यनाथ को राज्य मंत्री भी नहीं बनाया गया. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी सरकार में सैयद शाहनवाज हुसैन सबसे युवा मंत्री के रूप में मशहूर हुए थे, जबकि वो योगी आदित्यनाथ के साल भर बाद संसद पहुंचे थे. योगी आदित्यनाथ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसलिए पसंद करता है क्योंकि वो संघ के हिंदुत्व के एजेंडे में सीधे- सीधे फिट हो जाते हैं.भाजपा नेतृत्व को भी पता है कि योगी आदित्यनाथ के हटने के बाद उत्तर प्रदेश में सत्ता बरकरार रखना मुश्किल हो जाएगा – खासकर मौजूदा माहौल में तो नामुमकिन भी माना जा सकता है.
और भाजपा के उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर होने का मतलब, केंद्र सरकार पर सीधा असर – क्योंकि उत्तर प्रदेश जितनी बड़ी तादाद में सांसद किसी और राज्य से नहीं आते. और वो टोटका भी तो है कि प्रधानमंत्री पद का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरता है.
हाल की उथलपुथल के बाद एक बार फिर साबित हो गया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास योगी आदित्यनाथ का कोई विकल्प नहीं है – और यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में संगठन पर सरकार भारी है.
क्या ये योगी की एनकाउंटर पॉलिटिक्स का असर है?
अव्वल तो योगी आदित्यनाथ अपराधियों के एनकाउंटर के लिए पुलिसवालों की पीठ ठोकते रहते हैं, लेकिन कई बार उनकी राजनीति भी एनकाउंटर पॉलिटिक्स की ही झलक मिलती है.
शुरू से ही योगी आदित्यनाथ अपने राजनीतिक विरोधियों से दो-दो हाथ करने को तैयार नजर आते हैं. भले ही भाजपा नेतृत्व ही उनके रास्ते की बाधा बनने की कोशिश क्यों न कर रहा हो.
योगी आदित्यनाथ को जब भी, जो भी पसंद नहीं उसका जोरदार विरोध किया. अगर पार्टी फोरम पर संभव न हो सका तो सार्वजनिक विरोध करने लगे. ऐसे कई उदाहरण देखने को मिलते हैं.
1. केशव प्रसाद मौर्य की बगावत बेकार गई
लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिली अब तक की सबसे बड़ी कामयाबी के बाद अखिलेश यादव भी पूरे फॉर्म में नजर आ रहे हैं. अखिलेश यादव ने केशव प्रसाद मौर्य को उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाने को मॉनसून ऑफर दिया है. वो ऐसा पहले भी कर चुके हैं.
असल में केशव प्रसाद मौर्य को 2017 में भी उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाने की पूरी उम्मीद थी. भाजपा के चुनाव जीत जाने के बाद वो भी मुख्यमंत्री पद की रेस में बने रहे, लेकिन योगी आदित्यनाथ बाजी मार ले गये.
2022 के विधानसभा चुनाव से पहले भी केशव प्रसाद मौर्य अंगड़ाई लेने लगे थे. सरेआम नाराजगी जाहिर करने लगे थे. लेकिन एक दिन संघ के बड़े नेता उनके घर पहुंच गये, बेटे को आशीर्वाद देने, और उस वक्त योगी आदित्यनाथ भी मौजद थे. केशव प्रसाद मौर्य मान गये, और एक बार फिर उनको खामोश कर दिया गया है.
बेशक 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को पर उत्तर प्रदेश में भाजपा को सत्ता दिलाने वाली टीम का वो नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन 2022 में वो सिराथू से अपना ही चुनाव हार गये, फिर भी भाजपा ने उनकी उप मुख्यमंत्री की कुर्सी बरकरार रखी है.
2. ‘अति-आत्मविश्वास’ वाली सीख
वरिष्ठ पत्रकार कूमी कपूर ने इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने 35 मौजूदा सांसदों को दोबारा टिकट नहीं देने की सलाह दी थी, जिसे नहीं माना गया – और उनमें से 27 चुनाव हार गये.
तो क्या योगी आदित्यनाथ की सलाह मान ली गई होती तो उत्तर प्रदेश में भाजपा की इतनी बुरी हालत नहीं हुई होती?
क्या यही कारण है कि योगी आदित्यनाथ भाजपा के रणनीतिकारों के ‘अति-आत्मविश्वास’ को हार का जिम्मेदार ठहरा रहे हैं?
ये भी देखा गया है कि जब- जब भाजपा योगी आदित्यनाथ की बात नहीं मानती, हमेशा ही हार का मुंह देखना पड़ता है. बीते कुछ ऐसा चुनावों के नतीजे देखें तो बिलकुल ऐसा ही लगता है – और एक बार तो योगी आदित्यनाथ ने खुल कर विरोध किया, खुद को साबित भी कर दिया कि वो सब पर भारी हैं.
A-योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद गोरखपुर लोकसभा सीट पर 2018 में उप चुनाव हुआ था. भाजपा उम्मीदवार उपेंद्र शुक्ला, योगी आदित्यनाथ को पसंद नहीं थे.भाजपा चुनाव हार गई.
B-जिस गोरखपुर नगर सीट से योगी आदित्यनाथ फिलहाल विधायक हैं, उस पर 1989 से लगातार शिव प्रताप शुक्ला चुनाव जीतते आ रहे थे. 2002 में योगी आदित्यनाथ ने शिव प्रताप शुक्ला को टिकट देने का विरोध किया, भाजपा की चुनाव समिति ने उनकी बात नहीं मानी. योगी आदित्यनाथ ने शहर के एक डॉक्टर को मैदान में उतार दिया और खूब प्रचार किया. भाजपा उम्मीदवार की हार हुई, डॉक्टर राधामोहन दास अग्रवाल चुनाव जीत गये. डॉक्टर अग्रवाल का योगी के साथ अब वो रिश्ता नहीं रहा, फिलहाल वो राज्यसभा सांसद हैं.
3. योगी को बाहरी दखल बर्दाश्त नहीं
कोविड संकट के बाद दिल्ली से पूर्व नौकरशाह अरविंद शर्मा को लखनऊ भेजा गया. अरविंद शर्मा ने कामकाज अच्छे से संभाला, लेकिन वो सीधे पीएमओ के संपर्क में होते थे. प्रधानमंत्री मोदी ने खुद उनके काम की तारीफ भी की थी.
अरविंद शर्मा को मंत्रिमंडल में शामिल करने की बात हुई, लेकिन योगी आदित्यनाथ राजी नहीं हुए. 2022 में चुनाव जीतकर सरकार बनाने के बाद ही अरविंद शर्मा को उत्तर प्रदेश मंत्रिमंडल में जगह मिल सकी – असल में, योगी आदित्यनाथ को किसी भी सूरत में बाहरी दखल बर्दाश्त नहीं है.
जब नितिन गडकरी भाजपा के अध्यक्ष हुआ करते थे, तब का भी एक वाकया है. कभी मायावती के करीबी रहे बाबू सिंह कुशवाहा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे, लेकिन उनको भाजपा में शामिल कर लिया गया. बाबू सिंह कुशवाहा को भाजपा में लिये जाने के विरोध में तो कई नेता थे, लेकिन सबसे जोरदार आवाज योगी आदित्यनाथ की रही.
योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर में प्रेस कांफ्रेंस बुलाई और आर या पार का ऐलान कर दिया, हम इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते कि जिन्हें हत्या का अभियुक्त बनाना चाहिए… उनके प्रति हमदर्दी दुर्भाग्यपूर्ण है… ये बहुत दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद स्थिति है… हमें सोचना पड़ेगा कि ऐसी स्थिति में हम सार्वजनिक जीवन में रहें या राजनीति से अलग हो जाएं.प्रेस कांफ्रेंस का ऐसा असर हुआ कि बाबू सिंह कुशवाहा को संदेश गया और उन्होंने खुद ही भाजपा से अलग होने का ऐलान कर दिया.
तो ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. योगी आदित्यनाथ की पुरानी हनक और भी मजबूत हुई है – संगठन को समझा दिया है कि ‘सरकार’ कौन है? (मृगांक शेखर)