हेट स्पीच: सुप्रीम कोर्ट भी सेलेक्टिव रहे तो समाधान दूर की कोड़ी
नफरती भाषणों पर दोहरे मानदंड, मजहबी उन्मादियों के डर की भेंट न चढ़े अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
गौर करने वाली बात यह भी है कि जितनी न्यायिक सक्रियता हेट स्पीच पर दिखाई दे रही है उतनी बेअदबी या फिर ईशनिंदा का आरोप लगा कर की गई हत्याओं या आए दिन होने वाले लव जिहाद जैसे हेट क्राइम्स पर नहीं दिख रही है।
विकास सारस्वत
हेट स्पीच यानी नफरत या द्वेष फैलाने वाले भाषणों पर चल रही सुनवाई के दौरान पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे सभी प्रकार के द्वेषपूर्ण भाषणों का स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करें। हेट स्पीच को गंभीर अपराध बताते हुए न्यायालय ने इसे देश की पंथनिरपेक्षता के लिए बड़ा खतरा बताया है। सुनवाई के दौरान शीर्ष न्यायालय की दो सदस्य पीठ ने यह चेतावनी भी दी कि यदि संबंधित राज्यों की पुलिस ऐसे मामलों में प्राथमिकी दर्ज नहीं करती तो यह सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना होगी।
केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर द्वारा चुनावी सभा के दौरान लगवाए गए नारे और हरिद्वार में तथाकथित धर्म संसद के दौरान की गई टिप्पणियां आदि दायर किए गए मुकदमों का आधार बनीं। बाद में विभिन्न पक्षकारों द्वारा और बहुत से मामलों को जोड़ा गया। भारत जैसे बहुजातीय और विषमरूपी देश में सद्भावपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि सार्वजनिक संभाषण में मर्यादा रखी जाए। यह भी सही है कि नस्लीय, भाषाई, जातीय या मजहबी आधार पर घृणा और उत्तेजना फैलाने के प्रयासों को रोकना आवश्यक है, परंतु जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय ने अस्पष्ट और सरसरे तौर पर हेट स्पीच संबंधी निर्देश जारी किए हैं, उनसे समाधान कम स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दमन और शासन द्वारा इन प्रावधानों के दुरुपयोग की संभावना अधिक दिखाई पड़ती है।
स्वयं न्यायालयों ने ऐसे मामलों में बार-बार विरोधाभासी रवैया अपनाया है। जहां एक तरफ दिल्ली में आयोजित हिंदू युवा वाहिनी कार्यक्रम में पुलिस को हेट स्पीच का प्रमाण न मिलने पर भी सर्वोच्च न्यायालय कार्रवाई का आग्रह करता रहा, वहीं दूसरी तरफ दिल्ली की एक अदालत ने आल्ट न्यूज के सह संस्थापक मोहम्मद जुबैर को भावनाएं भड़काने के मामले में यह कहकर जमानत दे दी कि विचारों का आदान-प्रदान स्वतंत्र समाज का सूचक है और हिंदू धर्म के अनुयायियों से सहिष्णुता की अपेक्षा की जाती है। नूपुर शर्मा के बयान को काट-छांट कर प्रसारित करने वाले जिस मोहम्मद जुबैर ने पूरे देश में ‘सर तन से जुदा’ उन्माद को भड़काया, उसमें कम से कम छह हिंदुओं की जान गई, परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने न सिर्फ जुबैर को तमाम केसों में कार्रवाई से बचाव प्रदान किया, बल्कि सरकार को सत्ता का दुरुपयोग न करने की चेतावनी भी दी।
इसी तरह पुस्तकों को हेट स्पीच बता कर प्रतिबंध लगाने के मामलों में भी न्यायालयों के दोहरे मानदंड देखने को मिले हैं। उदाहरण के तौर पर एक ओर तो सर्वोच्च न्यायालय ने कांचा इलैया की तेलुगू पुस्तक ‘सामाजिक स्मगलरलू कोमाटोल्लू’ पर प्रतिबंध लगाने से इनकार कर दिया, वहीं दूसरी ओर अधिवक्ता आरवी भसीन की पुस्तक ‘इस्लाम – अ कांसेप्ट आफ पालिटिकल इनवेजन बाय मुस्लिम्स’ को बांबे हाई कोर्ट ने हेट स्पीच बता कर प्रतिबंधित कर दिया। कांचा इलैया की पुस्तक में वैश्य समुदाय को सामाजिक लुटेरा बताने के अलावा संपूर्ण हिंदू समाज के खात्मे के बाद भारत की परिकल्पना पर पूरा अध्याय था। बावजूद इसके न्यायालय ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को पुस्तक में वर्णित हिंदू घृणा से ज्यादा महत्वपूर्ण माना।
दूसरी तरफ भसीन की पुस्तक मौलवी मोहम्मद अली और अब्दुल्लाह यूसुफ अली जैसे बड़े मुस्लिम विद्वानों के कुरान अनुवादों पर आधारित थी, परंतु न्यायालय ने उसे मुस्लिम समुदाय की भावनाएं भड़काने वाली द्वेषपूर्ण लेखनी माना। न्यायालय ने भसीन को जिहाद की अवधारणा को गलत रूप में पेश करने का दोषी बताया। दिलचस्प बात यह है कि देवबंद जैसी महत्वपूर्ण संस्था के निसाब यानी पाठ्यक्रम में जिहाद को बड़े साफ तौर पर ऐसा फर्ज बताया है, जो इस्लाम की दावत ठुकराने वाले हर गैर मुस्लिम पर सशस्त्र लड़ाई लाजिम करता है।
सर्वोच्च न्यायालय की जो पीठ हेट स्पीच मामलों की सुनवाई कर रही है, उसका स्वयं का आचरण बहुत हैरान करने वाला रहा है। पीठ के समक्ष जब सालिसिटर जनरल तुषार मेहता द्वारा डीएमके नेता आर राजीव गांधी के उस बयान को लाया गया, जिसमें उन्होंने पेरियार की प्रेरणा से ब्राह्मणों के नरसंहार की बात कही थी, तब न्यायाधीश के एम जोसफ ने मुस्कुराकर एसजी से पेरियार के अस्तित्व की जानकारी होने के बारे में पूछा। इसी तरह अधिवक्ता विष्णु जैन द्वारा देश के विभिन्न हिस्सों में पीएफआइ रैलियों में लगे ‘सर तन से जुदा’ नारों को भी न्यायाधीश ने क्रिया की प्रतिक्रिया करार दिया।
सर्वोच्च न्यायालय का यह बेहद चौंकाने वाला आचरण और अब तक विभिन्न न्यायालयों द्वारा संज्ञान में लिए गए केस बताते हैं कि हेट स्पीच की कार्रवाई अधिकांशतः अल्पसंख्यक और विशेष रूप से मुस्लिम समाज की अति संवेदनशीलता को संबोधित करने या फिर इस्लाम पर होने वाली किसी भी चर्चा को रोकने के लिए हो रही है, भले ही वह कितनी भी तार्किक और जरूरी क्यों न हो।
गौर करने वाली बात यह भी है कि जितनी न्यायिक सक्रियता हेट स्पीच पर दिखाई दे रही है, उतनी बेअदबी या फिर ईश निंदा का आरोप लगा कर की गई हत्याओं या आए दिन होने वाले लव जिहाद जैसे “हेट क्राइम्स” पर नहीं दिख रही है। यदि यही गंभीरता हेट क्राइम्स पर देखने को मिले तो शायद उन मजहबी प्रेरणाओं और उनके स्रोतों को चिह्नित किया जा सके, जो घृणा जनित अपराधों को बढ़ावा दे रहे हैं। हेट स्पीच अपराधों पर सुनवाई करते वक्त न्यायालयों को ध्यान रखना होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मजहबी उन्मादियों के डर की भेंट न चढ़ जाए। इसके साथ ही न्यायालयों को स्पष्ट करने की आवश्यकता है कि ऐतिहासिक और प्रामाणिक तथ्यों का उद्धरण किसी को कितना भी अप्रिय क्यों न हो, हेट स्पीच नहीं माना जा सकता।
यदि तथ्य किसी व्यक्ति या समूह को उद्वेलित करते हैं तो वह समस्या उनकी अपनी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सही अर्थ यही है कि किसी दूसरे व्यक्ति या समूह को अप्रिय लगने वाले तथ्य या उन तथ्यों पर आधारित विचारों को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता मिले। हेट स्पीच की अस्पष्ट अवधारणा को यदि मनमाने न्यायिक उपयोग में लाया जाता है या फिर उसे उन्मादी भीड़ को तुष्ट करने का साधन बनाया जाता है तो यह संविधान प्रदत्त अधिकारों पर आघात होगा।