जाटलैंड: चुनाव में वीर गोकुल जाट का जिक्र क्यों?

गोकुल सिंह जाट तिलपत गाँव का प्रमुख था। 10 मई 1666 को जाटों व औरंगजेब की सेना में तिलपत में लड़ाई हुई जिसमें जाटों की विजय हुई। मुगल शासन ने इस्लाम  बढावा दे किसानों पर कर बढ़ा दिया। गोकुल ने किसानों को संगठित कर कर जमा करने से मना कर दिया। औरंगजेब ने शक्तिशाली सेना भेजी। गोकुल को बंदी बनाया और 1 जनवरी 1670 को आगरा के किले पर जनता को आतंकित करने को टुकडे़-टुकड़े कर मारा गया। गोकुल के बलिदान ने मुगल शासन के खातमें की शुरुआत की।

मुगल साम्राज्य के विरोध में विद्रोह

मुगल साम्राज्य में राजपूत भी अन्दर ही अन्दर असंतुष्ट होने लगे परन्तु जैसा कि “दलपत विलास” के लेखक दलपत सिंह [सम्पादक: डॉ॰ दशरथ शर्मा ] ने स्पष्ट कहा , राजपूत मुगल शासन के विरुद्ध विद्रोह की हिम्मत न कर सके। असहिष्णु धार्मिक नीति के विरुद्ध विद्रोह का बीड़ा उठाया उत्तर प्रदेश के कुछ जाट नेताओं और जमींदारों ने। आगरा, मथुरा, अलीगढ़, इसमें अग्रणी रहे। शाहजहाँ के अन्तिम वर्षों में उत्तराधिकार युद्ध के समय जाट नेता वीर नंदराम ने शोषक धार्मिक नीति के विरोध में लगान देने से इंकार कर  विद्रोह का झंडा फहराया। तत्पश्चात वीर नंदराम का स्थान उदयसिंह तथा गोकुलसिंह ने ग्रहण किया।

इतिहास के इस तथ्य को स्वीकार करिए कि राठौर वीर दुर्गादास के पहले ही उत्तर प्रदेश के जाट वीरों को कट्टरपंथी मुग़ल सम्राटों की असहिष्णु नीतियों से सचेत थे। गोकुल सिंह मथुरा, वृन्दावन, गोवर्धन, हिंडौन और महावन के हिंदुओं के नेता थे तिलपत की गढ़ी उसका केन्द्र थी। जब कोई भी मुग़ल सेनापति उसे परास्त नहीं कर सका तो सम्राट औरंगजेब को स्वयं एक विशाल सेना ले जनाक्रोश का दमन करना पड़ा।

मथुरा, वृन्दावन के मन्दिर और भारतीय संस्कृति की रक्षा  तथा तात्कालिक शोषण, अत्याचार और राजकीय मनमानी के प्रतिरोध का यदि किसी को श्रेय है तो वह केवल ‘गोकुलसिंह’ को है।

यह चेतना कम ही लोगों को है कि वीरवर गोकुलसिंह का बलिदान, गुरू तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व हुआ था। दिसम्बर १६७५ में गुरू तेगबहादुर का बलिदान दिल्ली की मुग़ल कोतवाली के चबूतरे पर हुआ जहाँ आज गुरुद्वारा शीशगंज शान से मस्तक उठाये है। गुरू के द्वारा शीश देने से ही गुरुद्वारा शीशगंज कहलाता है। दूसरी ओर, जब हम उस महापुरुष की ओर दृष्टि डालते हैं जो गुरू तेगबहादुर से ६ वर्ष पूर्व उन्ही मूल्यों की रक्षार्थ शहीद हुआ था और जिसको दिल्ली की कोतवाली पर नहीं, आगरे की कोतवाली के लंबे-चौड़े चबूतरे पर, हजारों लोगों की हाहाकार करती भीड़ के सामने, लोहे की जंजीरों में जकड़कर लाया गया था और जिसको-जनता का मनोबल तोड़ने के इरादे से बड़ी पैशाचिकता से, एक-एक जोड़ कुल्हाड़ियों से काटकर मार डाला गया था, तो हमें कुछ नजर नहीं आता। गोकुलसिंह सिर्फ़ जाटों के लिए शहीद नहीं हुए थे न उनका राज्य ही किसी ने छीना लिया था, न कोई पेंशन बंद कर दी थी, बल्कि उनके सामने तो अपूर्व शक्तिशाली मुग़ल-सत्ता, दीनतापूर्वक, संधि को गिड़गिड़ाई थी।  शाही इतिहासकारों ने उनका उल्लेख तक नहीं किया। गुरू तेगबहादुर की गिरफ्तारी और वध का उल्लेख किसी भी समकालीन फारसी इतिहास ग्रंथ में नहीं है। मेवाड़ के राणा प्रताप से लड़ने अकबर स्वयं नहीं गया था परन्तु ब्रज के जाट योद्धाओं से लड़ने उसे स्वयं जाना पड़ा था। फ़िर भी उनको पूर्णतया दबाया नहीं जा सका और चुने हुए सेनापतियों की कमान में बारम्बार मुग़ल सेनायें जाटों के दमन और उत्पीड़न को भेजी जाती रहीं और न केवल जाट पुरूष बल्कि उनकी वीरांगनायें भी अपनी ऐतिहासिक दृढ़ता और पारंपरिक शौर्य से सेनाओं का सामना करती रहीं। दुर्भाग्य यह कि भारत की इन वीरांगनाओं और सच्चे सपूतों का कोई उल्लेख शाही टुकडों पर पले इतिहासकारों ने नहीं किया। हमें उनकी जानकारी मनूची नामक यूरोपीय यात्री के वृतान्तों से होती है। उसी के शब्दों में एक अनोखा चित्र देखिये, जो अन्य किसी देश या जाति के इतिहास में दुर्लभ है:

“उसे इन विद्रोहियों से असंख्य मुसीबतें उठानी पड़ीं और इन पर विजयी होकर लौटने के बाद भी, वह अनेक बार अपने सेनापति भेजने को मजबूर हुआ। विद्रोही गांवों में पहुँचने के बाद, ये सेनानायक शाही आज्ञाओं का पालन क़त्ल और सिर काटकर  करते थे। सुरक्षा को ग्रामीण कंटीली झाडियों में छिप जाते या छोटी गढ़ियों में शरण लेते। स्त्रियां भाले और तीर लेकर अपने पतियों साथ खड़ी होतीं। पति बंदूक दाग चुका होता तो पत्नी हाथ में भाला थमा देती और स्वयं बंदूक भरने लगती थी। इस प्रकार वे उस समय तक रक्षा करते थे, जब तक युद्ध जारी रखने में बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाते। जब बिल्कुल लाचार हो जाते, तो अपनी पत्नियों और पुत्रियों की गरदनें काट भूखे शेरों की तरह शत्रुओं पर टूट पड़ते और निश्शंक वीरता के बल पर अनेक बार युद्ध जीतने में सफल होते थे”।

औरंगजेब की धर्मान्धता पूर्ण नीति

सर यदुनाथ सरकार लिखते हैं – “मुसलमानों की धर्मान्धता पूर्ण नीति में मथुरा की पवित्र भूमि पर सदैव ही आघात होते रहे। दिल्ली – आगरा राजमार्ग पर होने से, मथुरा की ओर सदैव विशेष ध्यान आकर्षित होता रहा । वहां के हिन्दुओं को दबाने औरंगजेब ने कट्टर मुसलमान अब्दुन्नवी को मथुरा का फौजदार नियुक्त किया। सन १६७८ के प्रारम्भ में अब्दुन्नवी के सैनिकों का दस्ता मथुरा में  लगान वसूली करने निकला. अब्दुन्नवी ने पिछले ही वर्ष, गोकुलसिंह के पास नई छावनी स्थापित की थी। सभी कार्यवाही का सदर मुकाम यही था। गोकुलसिंह के कहे किसानों ने लगान देने से इनकार कर दिया. मुग़ल सैनिकों ने लूटमार से लेकर किसानों के ढोर-डंगर तक खोलने शुरू कर दिए. बस संघर्ष शुरू हो गया।

औरंगजेब का नया फरमान ९ अप्रैल १६६९ आया – “काफ़िरों के मदरसे और मन्दिर गिरा दिए जाएं”. ब्रज क्षेत्र के कई अति प्राचीन मंदिरों और मठों का विनाश कर दिया गया। कुषाण और गुप्तकालीन निधि, इतिहास की अमूल्य धरोहर, तोड़-फोड़, मुंडविहीन, अंगविहीन कर सर्वत्र छितरा दी गयी। सम्पूर्ण ब्रजमंडल में मुगलिया घुड़सवार और गिद्ध चील दिखाई देते थे। और दिखाई देते थे धुंए के बादल और लपलपाती ज्वालायें- उनमें से निकलते शाही घुडसवार.

अत्याचारी फौजदार अब्दुन्नवी का अन्त

मई  आतेे-आते अत्याचारी फौजदार का अंत आ गया . अब्दुन्नवी ने सिहोरा  गाँव जा घेरा. गोकुलसिंह भी पास में ही थे। अब्दुन्नवी के सामने जा पहुंचे। मुग़लों पर दुतरफा मार पड़ी. फौजदार गोली प्रहार से मारा गया। बचे खुचे मुग़ल भाग गए। गोकुलसिंह आगे बढ़े और सादाबाद  छावनी लूटकर आग लगा दी। इसका धुआँ और लपटें इतनी ऊँची उठी कि आगरा और दिल्ली के महलों में  दिखाई दी।

वजीर सादुल्ला खान (शाहजहाँ कालीन) की छावनी का नामोनिशान मिट गया था। मथुरा ही नही, आगरा जिले में से भी शाही झंडे के निशाँ उड़कर आगरा शहर और किले में ढेर हो गए । निराश मृतप्राय हिन्दुओं में जीवन का संचार हुआ। उन्हें दिखा कि अपराजेय मुग़लों के विष-दंत तोड़े जा सकते हैं। उन्हें दिखा आशाओं का रखवाला-एक पुनर्स्थापक गोकुलसिंह।

शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा

इसके पाँच माह तक भयंकर युद्ध होते रहे। मुग़लों की सभी तैयारियां और सेनापति प्रभावहीन और असफल सिद्ध हुए. क्या सैनिक और क्या सेनापति सभी पर गोकुलसिंह की वीरता और युद्ध संचालन का आतंक बैठ गया। सितंबर में निराश शफ शिकन खाँ ने गोकुलसिंह के पास संधि-प्रस्ताव भेजा कि

१. बादशाह उसे क्षमादान को तैयार हैं।

२. वे लूटा हुआ सामान लौटा दें।

३. वचन दें कि भविष्य में विद्रोह नहीं करेंगे।

गोकुलसिंह ने पूछा -मैं बादशाह से किस चीज की क्षमा मांगू ? तुम्हारे बादशाह मुझसे क्षमा मांगें जिसने अकारण ही मेरे धर्म का अपमान और हानि की है। दूसरे उसके क्षमादान और मिन्नत का भरोसा  कौन करता है?

इसके आगे संधि की चर्चा चलाना व्यर्थ था। गोकुलसिंह ने कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी थी। औरंगजेब का विचार था कि गोकुलसिंह को भी ‘राजा’ या ‘ठाकुर’ का खिताब देकर रिझा लें और मुग़लों का एक और पालतू बढ़ जाये. हिंदुस्तान को ‘दारुल इस्लाम’ बनाने की उसकी सुविचारित योजना निर्विघ्न आगे बढती रहे. मगर गोकुलसिंह के आगे उसकी कूटनीति बुरी तरह मात खा गयी। अत: औरंगजेब स्वयं बड़ी सेना, तोपों  के साथ गोकुल सिंह से निपटने चल पड़ा. परम्पराएं और मर्यादा टूटने के ऐसे ज्वलंत  उदाहरण पर भी इतिहासकारों का ध्यान नहीं गया है।

औरंगजेब २८ नवम्बर १६६९ को मथुरा पहुँचा

यूरोपीय यात्री मनूची के अनुसार पहले अकबर को जाना पड़ा था और अब औरंगजेब को, जिसका साम्राज्य न सिर्फ़ मुग़लों में बल्कि उस समय तक सभी हिंदू-मुस्लिम शासकों में सबसे बड़ा था। यह थी वीरवर गोकुलसिंह की महानता. दिल्ली से चलकर औरंगजेब २८ नवम्बर १६६९ को मथुरा पहुँचा। गोकुलसिंह के अवैतनिक सैनिक और सेनापति  रबी बुुुुआई को पड़ौसी आगरा चले गए थे।

औरंगजेब ने छावनी मथुरा में बनाई और वहां से  युद्ध संचालन करने लगा। गोकुलसिंह को चारों ओर से घेरा जा रहा था। उसने एक और सेनापति हसन अली खाँ को मजबूत और सुसज्जित सेना के साथ मुरसान की ओर से भेजा. हसन अली ने ४ दिसम्बर १६६९ प्रात: अचानक छापा मारकर, जाटों की तीन गढ़ियाँ – रेवाड़ा, चंद्ररख और सरखरू घेर लीं। शाही तोपों और बंदूकों की मार के आगे ये छोटी गढ़ियाँ ज्यादा उपयोगी सिद्ध न हो सकीं और बड़ी जल्दी टूट गयी।

हसन अली खाँ की सफलताओं से खुश औरंगजेब ने शफ शिकन खान के स्थान पर उसे मथुरा का फौजदार बना  उसकी सहायता को आगरा से अमानुल्ला खान, मुरादाबाद का फौजदार नामदार खान, आगरा शहर का फौजदार होशयार खाँ  सेनाओं के साथ भेजे . विशाल सेना चारों ओर से गोकुलसिंह को घेर आगे बढ़ी। गोकुलसिंह के विरुद्ध  अभियान, उन आक्रमणों से विशाल था, जो बड़े-बड़े राज्यों और राजाओं के विरुद्ध होते आए थे। इस वीर के पास न तो बड़े-बड़े दुर्ग थे, न अरावली की पहाड़ियाँ और न ही महाराष्ट्र जैसा विविधतापूर्ण भौगोलिक प्रदेश. इन अलाभकारी स्थितियों में उन्होंने जिस धैर्य और रण-चातुर्य से शक्तिशाली साम्राज्य का बराबरी से सामना किया, वह अभूतपूर्व है।

तिलपत युद्ध दिसंबर १६६९

दिसंबर १६६९ अन्तिम सप्ताह में तिलपत से २० मील दूर, गोकुलसिंह ने शाही सेनाओं का सामना किया। जाटों ने मुग़ल सेना पर विकट आक्रमण किया। सुबह से शाम युद्ध चला । कोई निर्णय नहीं हो सका। दूसरे दिन फ़िर घमासान हुुआ। जाट अपूूर्व वीरता सेेे युद्ध कर रहे थे। मुग़ल सेना, तोपखाने और जिरहबख्तर से सुसज्जित घुड़सवार सेनाओं से भी गोकुल सिंह को काबू न कर सके। भारत के इतिहास में ऐसे युद्ध कम हुए हैं जहाँ कई प्रकार से बाधित कमजोर पक्ष, इतने शांत निश्चय और अडिग धैर्य से लड़ा हो। हल्दी घाटी युद्ध का निर्णय कुछ ही घंटों में हो गया था। पानीपत के तीनों युद्ध एक-एक दिन में ही समाप्त हुुऐ, परन्तु वीरवर गोकुलसिंह का युद्ध तीसरे दिन भी चला.

तीसरे दिन, फ़िर भयंकर संग्राम हुआ। जाटों का आक्रमण इतना प्रबल था कि शाही सेना के पैर उखड़ गए , परन्तु तभी हसन अली खाँ के नेतृत्व में  नई ताजादम मुग़ल सेना आ गयी जिसने गोकुलसिंह की विजय पराजय में बदल दी। बादशाह आलमगीर की इज्जत बच गयी। जाटों के पैर उखड़े लेकिन वे भागे नहीं . उनका गंतव्य  तिलपत गढ़ी युद्ध क्षेत्र से 20 मील दूर थी। तीसरे दिन से यहाँ भी भीषण युद्ध छिड़ गया और अगले तीन दिन चलता रहा। भारी तोपों के बीच तिलपत की गढ़ी भी टिक नहीं सकी और उसका पतन हो गया।

गोकुलसिंह का बलिदान

तिलपत पतन बाद गोकुलसिंह और उनके ताऊ उदयसिंह को सपरिवार बंदी बनाया गया। उनके सात हजार साथी भी बंदी हुए. सबको आगरा लाया गया। औरंगजेब पहले ही लाल किले के दीवाने आम में विराजमान था। औरंगजेब ने कहा -“जिंदगी चाहते हो तो इस्लाम कबूल लो. रसूल के बताये रास्ते पर चलो. बोलो क्या कहते हो इस्लाम या मौत?

जाटों ने कहा – “बादशाह, अगर तेरे खुदा और रसूल का का रास्ता वही है जिस पर तू चल रहा है तो हमें तेरे रास्ते पर नहीं चलना.”

अगले दिन गोकुलसिंह और उदयसिंह आगरा कोतवाली  लाये गये-बंधे हाथ, गले से पैर तक लोहे में जकड़ा शरीर. गोकुलसिंह की सुडौल भुजा पर जल्लाद का पहला कुल्हाड़ा चला, तो  दायीं भुजा चबूतरे पर गिरकर फड़कने लगी। वीर का मुख ही नहीं, शरीर भी निष्कंप था। उसने एक निगाह फुव्वारा बने कंधे पर डाली और फ़िर जल्लादों को देखने लगा कि दूसरा वार करें। परन्तु जल्लाद जल्दी में नहीं थे। उन्हें ऐसे ही निर्देश थे। दूसरे कुल्हाड़े पर लोग आर्तनाद कर उठे.हिंदू- मुसलमान सभी ने आँखें बंद कर ली. अनेक रोते हुए भाग निकले। कोतवाली के चारों ओर प्रलय थी। एक को दूसरे का होश नहीं था। वातावरण में एक ही ध्वनि थी- “हे राम!…हे रहीम !! इधर आगरा में गोकुलसिंह का सिर गिरा, उधर मथुरा में केशवरायजी का मन्दिर !

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