ज्ञान: गणित की मातृभूमि है भारत- ग्रीक 10 हजार को ही जानते थे अनंत
ज्ञान: गणित की मातृभूमि है भारत-4
(22 फरवरी से आगे)
सहस्र (१०००)-इसका अर्थ है सह + स्र = साथ चलना। प्रायः १००० व्यक्ति एक साथ रहते हैं (गांव या नगर के मुहल्ले में १ से १० हजार तक), या सेना में १००० लोग साथ रहते या चलते हैं। आदि काल से सेना की इकाई में १००० व्यक्ति साथ रहते थे, मुगलों ने ५ या १० हजार के मनसब दिये थे। महाराष्ट्र का हजारे या असम का हजारिका उपाधि का यही अर्थ है। किसी भी व्यक्ति को प्रायः १००० लोग ही जानते हैं। इन सभी अर्थों में सहस्र का अर्थ १००० है। फारसी में सहस्र का हस्र हो गया है जिसका अर्थ प्रभाव या परिणाम है। इससे हिन्दी में हजार हुआ है। सेना की व्यवस्था करने वालों को हजारी, हजारे (महाराष्ट्र) या हजारिका (असम) कहा जाता था। सूर्य का तेज १००० व्यास तक होता है जिसे सहस्राक्ष क्षेत्र कहा गया है। पर इसका कुछ प्रभाव उससे बहुत दूर तक भी है, वह ब्रह्माण्ड (आकाशगंगा) के छोर पर भी विन्दु मात्र दीखता है, अतः सहस्र का अर्थ अनन्त भी है। ग्रीक में हजार (मिरिअड) तक ही गिनती थी अतः अनन्त को भी मिरिअड ही कहते थे। किसी संख्या का अनुमान भी हम प्रायः ३ दशमलव अंक तक करते हैं, अर्थात् १००० में एक की शुद्धि रखते हैं। बड़ी संख्या जैसे देश का बजट भी हजार से कम रुपयों में नहीं लिखा जाता। अतः सहस्र का अर्थ ’प्रायः’ भी होता है। पुरुरवा का शासनकाल ५६ वर्ष था, उसे प्रायः ६० वर्ष (षष्टि सहस्र वर्ष) कहा गया है। शासनकाल की एक और विधि है जिसे अंक कहा जाता है, जिसका आज भी ओडिशा के पञ्चाङ्गों में व्यवहार होता है। राजा के अभिषेक के बाद जब भाद्रपद शुक्ल द्वादशी आती है उसे शून्य मानकर वहां से गिनती आरम्भ करते हैं, अतः इस दिन को शून्य (सुनिया) कहते हैं। उसके आदि के वर्षों में १, २, आदि अंक होते हैं। इस दिन वामन ने बलि से लेकर त्रिलोकी का राज्य इन्द्र को दिया था। इससे पूर्व इन्द्र राज्य-शून्य थे, उसके बाद अशून्य हुये। एक विधि में सभी अंक गिनते हैं, अन्य विधि में ०, ६ से अन्त होने वाले अंक छोड़ देते हैं। अतः पुरुरवा का ५६ वर्ष का राजत्व ६४ वर्ष भी लिखा जा सकता है जो कुछ अन्य पुराणों में है।
लक्ष (१०५)-मूल धातु है लक्ष दर्शनाङ्कयोः (१०/५, आत्मने पदी १०/१६४) = देखना, चिह्न देना, व्याख्या, दिखाना आदि। अतः सभी दृश्य सम्पत्ति लक्ष्मी तथा अदृश्य विमला (बिना मल का) है-
श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यौ (उत्तरनारायण सूक्त, वाज. यजु. ३१/२२) ।
हमारे देखने की सीमा अपने आकार का प्रायः १०० हजार भाग होता है, अतः इस संख्या को लक्ष कहते हैं। मनुष्य से आरम्भ कर ७ छोटे विश्व क्रमशः १-१ लक्ष भाग छोटे हैं-
वालाग्रशतसाहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्द्धं तत्क्षये तु निरञ्जनम्॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद्, ५)
मनुष्य से प्रायः लक्ष भाग का कोष (Cell) है जो जीव-विज्ञान के लिये विश्व है। उसका लक्ष भाग परमाणु है जो रसायन शास्त्र या क्वाण्टम मेकानिक्स के लिये विश्व है। पुनः उसका लक्ष भाग परमाणु की नाभि है जो न्यूक्लियर फिजिक्स के लिये विश्व है। उसका लक्ष भाग जगत् या ३ प्रकार के कण हैं-चर (हलके, Lepton), स्थाणु (भारी, Baryon), अनुपूर्वशः (दो कणों को जोड़ने वाले, Meson ) । उसका लक्ष भाग देव-असुर हैं जिनमें केवल देव से ही सृष्टि होती है, जो ४ में १ पाद है। उससे छोटे पितर, ऋषि हैं जिसका आकार १०-३५ मीटर है जो सबसे छोटी माप है। यह भौतिक विज्ञान मे प्लांक दूरी कही जाती है।
कोटि (१०७)-कोटि का अर्थ सीमा है, धनुष का छोर या छोर तक का कोण है। भारत भूमि की दक्षिणी सीमा धनुष्कोटि है। मनुष्य के लिये विश्व की सीमा पृथ्वी ग्रह है जिसका आकार हमारे आकार का १०७ गुणा है अतः १०७ को कोटि कहते हैं। पृथ्वी की सीमा सौरमण्डल उससे १०७ गुणा है। सौर मण्डल रूपी पृथ्वी (उसके गुरुत्वाकर्षण मे घूमने वाले पिण्डो) की सीमा ब्रह्माण्ड उससे १०७ गुणा है। ब्रह्माण्ड सबसे बड़ी रचना या काश्यपी पृथ्वी है जिसकी सीमा पूर्ण विश्व है जो इसी क्रम में १०७ गुणा होगा।
रविचन्द्रमसोर्यावन् मयूखैरवभास्यते। स समुद्र सरित् शैला पृथिवी तावती स्मृता॥३॥
यावत् प्रमाणा पृथिवी विस्तार परिमण्डलात्। नभस्तावत् प्रमाणं वै व्यास मण्डलतो द्विज॥४॥ (विष्णु पुराण २/७/३-४)
सूर्य-चन्द्र का प्रकाश जहां तक है उसे पृथ्वी कहा जाता है तथा उन सभी में समुद्र, नदी, पर्वत कहे जाते हैं। पृथ्वी ग्रह में तीनों हैं। सौर मण्डल में यूरेनस तक की ग्रह कक्षा से जो क्षेत्र बनते हैं वे द्वीप हैं तथा उनके बीच के क्षेत्र समुद्र हैं। यह लोक भाग है जिसकी सीमा को लोकालोक पर्वत कहा जाता है। उसके बाद १०० कोटि योजन (योजन = पृथ्वी व्यास का १००० भाग) व्यास क्षेत्र नेपचून कक्षा तक है। ब्रह्माण्ड में भी उसका केन्द्रीय थाली आकार का घूमने वाला क्षेत्र आकाशगंगा (नदी) कहते हैं। (मनुष्य तुलना से) पृथ्वी का जो आकार (व्यास, परिधि) है, (हर) पृथ्वी के लिये उसका आकाश उतना ही बड़ा है। अर्थात्, मनुष्य से आरम्भ कर पृथ्वी, सौर मण्डल, ब्रह्माण्ड तथा विश्व क्रमशः १०७ गुणा बड़े हैं। अर्बुद (१०८) अब्ज (१०९)-निरुक्त (३/१०) में इसकी उत्पत्ति अम्बुद = अर्बुद कही है। अरण तथा अम्बु-दोनों का अर्थ जल है। (शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५-६) के अनुसार १ मुहूर्त्त में लोमगर्त्त (कोषिका, अर्बुद) की संख्या प्रायः १०८ तथा स्वेदायन (स्वेद या जल की गति) १०९ है। आजकल हिन्दी में अर्बुद (अरब) का अर्थ १०९ (१०० कोटि) होता है। अब्ज का पर्याय वृन्द है जिसका एक अर्थ जल-विन्दु है।
क्रमशः,आगे और भी है
✍🏻अरुण उपाध्याय